शनिवार, 23 जून 2012

26 जून 1945 / जापान के साथ सहयोग / सिंगापुर से प्रसारण




-:26 जून 1945:- 

जापान के साथ सहयोग- सिंगापुर से प्रसारण


      "भारत आज एक राजनीतिक संकट के दौर से गुजर रहा है, और एक गलत कदम आजादी की ओर बढ़ते हमारे कदमों को पीछे खींच सकता है। मैं आपको बता नहीं सकता कि अभी मैं कितना चिन्तित हूँ; क्योंकि एक तरफ तो आजादी हमारी नजरों के अन्दर है, और दूसरी तरफ अगर एक गलत कदम उठाया जाता है, तो आजादी हमसे कोसों दूर जा सकती है। सबसे पहले तो मैं आपको यह बताना चाहूँगा कि भारत में दुश्मनों का प्रचार इतना सफल हो गया है कि प्रभावशाली नेतागण- जिन्हें यह भरोसा था कि आजादी हमारी मुट्ठी में आ गयी है, और जो आजादी हासिल करने के लिए 'करो या मरो' के लिए कटिबद्ध थे- आज वायसराय की एक्जीक्यूटिव काउन्सिल के सदस्य बनने के लिए राजी हो गये हैं।
      "हम भारत के बाहर रहने वाले संकट के इस दौर में सारी दुनिया की गतिविधियों पर बेहतर तरीके से नजर रख सकते हैं, बनिस्पत घर में रह रहे देशवासियों के। अतः हमारा यह फर्ज बनता है कि हम आपको अपनी राय स्पष्ट बतायें और उसी अनुरुप आपको सलाह दें। रंगून से अपने मुख्यालय को हटाने के बाद हम बर्मा के बाहर कहीं भी जा सकते थे। मगर हमें लगा कि हमारे दुश्मन यूरोप तथा बर्मा में मिली सफलता को भुनाने की कोशिश करेगा और नये सिरे से राजनीतिक एवं सैन्य हमले करेगा। उसी हिसाब से हमें इन आक्रमणों का सामना करना पड़ेगा, और हमें एक ऐसे स्थान पर होना चाहिए, जहाँ से जरुरत पड़ने पर हम भारत को अपना सन्देश दे सकें। यही वह प्रमुख कारण है, जिसकी वजह से मैं शोनान या सिंगापुर में आज हूँ।
      "भारत आज जिस संकट का सामना कर रहा है, वह इसलिए पैदा हुआ, क्योंकि हमारे देशवासियों के कुछ समूह- जो मात्र तीन साल पहले 'आजादी या मौत' के नारे बुलन्द कर रहे थे- अब लॉर्ड वॉवेल की शर्तों पर ब्रिटिश सरकार के साथ समझौता करने के लिए तैयार हैं। यह प्रवृत्ति दो कारणों से गलत एवं अन्यायपूर्ण है। पहला- आजादी के मामले में कोई समझौता नहीं होना चाहिए; और दूसरा- देश के ये लोग जैसा समझते हैं, परिस्थितियाँ वैसी नहीं हैं। अगर हम ब्रिटिश साम्राज्यवाद के खिलाफ अपना प्रतिरोध जारी रखते हैं, तो इस युद्ध की समाप्ति तक हमें आजादी मिल जायेगी।
      "जो मुझे सुननेवाले हैं, उनमें से किसी को भी अगर अगर सन्देह है कि मैं दुनिया में घट रही घटनाओं के सम्पर्क में हूँ या नहीं, तो वह खुद ही एक सामान्य तथ्य से इसकी जाँच कर सकता है। पिछले सप्ताह की मेरी बातों में उसने ध्यान दिया होगा कि मैं भारत की प्रतिदिन की घटनाओं से बहुत ही गहराई से जुड़ा रहा हूँ और अगर मैं देश के अन्दर के दैनिक घटनाक्रमों से अवगत रह सकता हूँ, तो मैं आसानी से दुनिया में घट रही घटनाओं से भी अवगत रह सकता हूँ। इसके विपरीत, जो भारत के अन्दर हैं, जो ऐंग्लो-अमेरीकन शक्तियों के नियंत्रण के बाहर वाले क्षेत्रों के घटनाक्रमों को नहीं देख सकते, जो दुश्मनों के प्रोपागण्डा के शिकार हैं, उनके लिए विश्व की परिस्थितियों का सटीक आकलन करना कठिन है।
      "आज सारी दुनिया संक्रमण के दौर से गुजर रही है और स्वाभाविक रुप से दुनिया में घट रही घटनाओं से भारत की नियति भी कुछ हद तक प्रभावित होगी। अब सवाल है कि मैं इतना आशावादी क्यों हूँ, जबकि देश में हमारे कई नामी-गिरामी नेतागण मानसिक रुप से पराजित महसूस करने लगे हैं? इसके पीछे दो मुख्य कारण हैं। पहला कारण- हम ब्रिटेन तथा उसके सहयोगियों के खिलाफ सशस्त्र संघर्ष कर रहे हैं और बर्मा में मिली असफलताओं के बावजूद हम ईस्ट-एशिया की स्थिति के मामले में निराशावादी नहीं हैं। दूसरा कराण- भारत एक अन्तर्राष्ट्रीय मुद्दा बन चुका है और अगर इस मुद्दे को ब्रिटिश साम्राज्य के 'घरेलू मामले' में परिवर्तित नहीं किया जाता, तो भारत का मामला विश्व जनमत के सामने उठेगा ही! क्या आप अपनी आँखों से देख नहीं सकते और अपने कानों से सुन नहीं सकते कि कैसे सीरिया और लेबनान तथाकथित 'युनाइटेड नेशन्स' के खेमे को दो-फाड़ करते हुए विश्वयुद्ध की परिस्थिति का फायदा उठा रहे हैं? हम सीरिया और लेबनान के नेताओं के मुकाबले कोई कम बुद्धिमान या कम दूरदर्शी नहीं हैं। लेकिन अगर हमें विश्व जनमत की अदालत में भारतीय मुद्दे को ले जाना है, तो हमें दो काम करने होंगे; पहला- ब्रिटिश साम्राज्यवाद के साथ किसी भी समझौते से हमें बचना होगा; और दूसरा- हमें भारत की आजादी को सुनिश्चित करने के लिए शस्त्र उठाना होगा!
      "अगर घर में हमारे देशवासी हथियार नहीं उठा सकते, और यहाँ तक कि वे ब्रिटिश युद्ध-चेष्टाओं के खिलाफ नागरिक अवज्ञा आन्दोलन भी नहीं चला सकते, तो कम-से-कम उन्हें ब्रिटिश साम्राज्यवाद के खिलाफ नैतिक प्रतिरोध तो जारी रखना ही चाहिए और कोई समझौता करने से इन्कार कर देना चाहिए। हम भारत की आजादी के अधिकार को हथियार के माध्यम से सुनिश्चित करने का काम जारी रखेंगे। और जब तक हम ऐसा करते रहेंगे, दुनिया की कोई ताकत भारत को एक अन्तर्राष्ट्रीय मुद्दा बने रहने से नहीं रोक सकती- बशर्ते कि आप ब्रिटिश सरकार के साथ समझौता करके हमें नीचा देखने के लिए मजबूर न कर दें!
      "मैं समझ रहा हूँ कि घर में कुछ नेता मेरे ऊपर बुरी तरह से क्रोधित हैं कि मैं ब्रिटिश सरकार के साथ समझौता करने की उनकी योजना का विरोध कर रहा हूँ। वे इसलिए भी मुझपर क्रोधित हैं कि मैं काँग्रेस तथा काँग्रेस वर्किंग कमिटी द्वारा की गयी भयंकर भूलों को सामने ला रहा हूँ, और मैं इस ओर ईशारा कर रहा हूँ कि काँग्रेस वर्किंग कमिटी देश के अन्दर या काँग्रेस के ही अन्दर 'राष्ट्रीय भावना' का प्रतिनिधित्व नहीं करती। ये साम्राज्यवादी नेता मुझे गालियाँ दे रहे हैं कि मैं जापान की मदद ले रहा हूँ। मैं जापान की मदद लेते हुए शर्मिन्दा नहीं हूँ। जापान के साथ मेरा सहयोग इस आधार पर है कि वह भारत की सम्पूर्ण आजादी का समर्थक है और उसने आजाद हिन्द यानि स्वतंत्र भारत की अन्तरिम सरकार को वैधानिक मान्यता प्रदान कर रखी है। लेकिन जो लोग आज ब्रिटिश सरकार के साथ सहयोग कर रहे हैं, ब्रिटेन का साम्राज्यवादी युद्ध लड़ रहे हैं, वे भारत में ब्रिटेन के वायसराय के अधीनस्थ की स्थिति स्वीकार करने के लिए तैयार हैं। हाँ, अगर उनके नेता इस आधार पर ब्रिटिश सरकार का साथ दे रहे होते कि ब्रिटेन स्वतंत्र भारत की सरकार को वैधानिक मान्यता देगा, तो यह एक अलग बात होती। इसके अलावे, जापान ने हमें हथियार दिये हैं, जिससे हमने अपनी सेना खड़ी की है, जिसके बल पर हम अपने एकमात्र शत्रु ब्रिटिश साम्राज्यवाद से युद्ध कर सकते हैं। इस सेना- आजाद हिन्द फौज- को भारतीय प्रशिक्षकों ने भारतीय भाषाओं का इस्तेमाल करते हुए प्रशिक्षित किया है। यह सेना भारत के राष्ट्रीय झण्डे को लेकर चलती है और इसके नारे भारत के राष्ट्रीय नारे हैं। इस सेना के अपने भारतीय अफसर हैं और पूर्णरुपेण भारतीयों द्वारा संचालित इसके अपने अफसर प्रशिक्षण संस्थान हैं। युद्ध के मैदान में यह सेना अपने भारतीय कमाण्डरों के अधीन रहकर लड़ती है, जिनमें से कुछ तो जेनरल के रैंक तक पहुँच गये हैं। अब अगर इस सेना को 'कठपुतली सेना'- पपेट आर्मी कहा जा रहा है, तो फिर वह ब्रिटिश इण्डियन आर्मी है, जिसे पपेट आर्मी कहा जाना चाहिए, क्योंकि वह ब्रिटिश ब्रिटिश अफसरों के अधीन रहते हुए ब्रिटेन का साम्राज्यवादी युद्ध लड़ रही है। क्या मैं इस बात पर विश्वास कर लूँ कि 25,00,000 की एक सेना में सिर्फ उँगलियों पर गिने जाने लायक कुछ भारतीय ही ब्रिटिश सेना के सर्वोच्च सम्मान- विक्टोरिया क्रॉस- को हासिल करने की योग्यता रखते हैं? एक भी भारतीय आज तक उस सेना में जेनरल के रैंक पर नहीं है।
      "साथियों, मैंने बताया कि जापान की मदद लेकर मैं शर्मिन्दा नहीं हूँ। इससे आगे बढ़कर मैं यह भी कहता हूँ कि अगर सर्वशक्तिमान ब्रिटिश साम्राज्य संयुक्त राज्य अमेरीका की मदद हासिल करने के लिए अपने घुटने टेक सकता है, तो फिर एक गुलाम तथा निरस्त्र राष्ट्र के रुप में हम अपने मित्रों से मदद क्यों नहीं ले सकते? आज हम जापान की मदद ले रहे हैं, कल को भारत के भले के लिए अगर जरुरत पड़ी, और अगर सम्भव हुआ, तो हम किसी दूसरी शक्ति से मदद लेने में भी नहीं हिचकेंगे। अगर हम किसी भी प्रकार की विदेशी मदद के बिना अपनी स्वतंत्रता हासिल कर सकते हैं, तो मुझसे ज्यादा प्रसन्न और कोई नहीं होगा। मगर आधुनिक इतिहास में ऐसा कोई उदाहरण अब तक दर्ज नहीं है, जब किसी गुलाम देश ने बिना किसी विदेशी मदद के आजादी हासिल की हो। और गुलाम भारत के लिए यह लाख दर्जा सम्मानजनक है कि वह ब्रिटिश साम्राज्य के शत्रुओं से हाथ मिलाये, बजाय इसके कि वह ब्रिटिश नेताओं तथा ब्रिटिश राजनीतिक दलों की चापलूसी करे! हमारी सारी मुश्किलों की जड़ यह है कि हम अपने शत्रुओं से पूरी तरह नफरत नहीं करते और हमारे नेतागण भारत के दुश्मनों की मदद करने के लिए तत्पर रहते हैं।
      "क्या यह हास्यास्पद नहीं कि हमारे कुछ नेता विदेशों में जाकर तो साम्राज्यवाद के खिलाफ जहर उगलते हैं और घर में साम्राज्यवाद के साथ हाथ मिलाते हैं? साथियों, अगर मैं यहाँ आरामकुर्सी पर बैठा एक राजनीतिज्ञ होता, तो मैं अपना मुँह बिलकुल नहीं खोलता और आपसे एक शब्द भी नहीं कहता। मैं और मेरे साथी यहाँ एक भयंकर लड़ाई लड़ रहे हैं। सीमा पर हमारे साथी मौत के साथ खेल रहे हैं। जो सीमा पर नहीं हैं, उन्हें भी अपने अस्तित्व की रक्षा के लिए प्रतिपल खतरे का सामना करना पड़ रहा है। जब हम बर्मा में थे, बमबारी और मशीनगनों की बौछार हमारा रोज की मनोरंजन हुआ करती थी। दुश्मन की निष्ठुर बमबारी और मशीनगनों की बौछार में मैंने अपने बहुत-से साथियों को मरते, अपंग और घायल होते देखा है। रंगून के आजाद हिन्द फौज अस्पताल में मैंने सारे फर्श को बुरी तरह से हताहत असहाय मरीजों से पटा हुआ देखा है। आज अगर मैं और मेरे कुछ साथी जिन्दा हैं, तो यह ईश्वर की कृपा है। चूँकि हम मौत का सामना करते हुए जी रहे हैं, काम कर रहे हैं और लड़ रहे हैं, इसलिए हमें हक है आपसे बात करने का और आपको सलाह देने का! आपमें से ज्यादातर नहीं जानते कि बमबारी क्या होती है। आपमें से ज्यादातर को नहीं पता कि नीचे उड़ते हुए बमवर्षक या लड़ाकू विमान से की जानेवाली मशीनगनों की बौछार कैसी होती है। आपमें से ज्यादातर को अनुभव नहीं होगा कि बन्दूकों की गोलियाँ आपके दाहिने-बाँयें से कैसे सनसनाती हुई निकलती हैं। जो कोई भी इन अनुभवों से गुजरा होगा और गुजरकर भी जिसने अपना मनोबल ऊँचा बनाये रखा होगा, वह लॉर्ड वॉवेल के प्रस्ताव की ओर झाँकने भी नहीं जायेगा!  
      "साथियों, लॉर्ड वॉवेल के प्रस्ताव का क्या करना है- यह हमें तय करना है। सबसे पहले तो- हालाँकि आपके पास समय कम है, फिर भी- हर वह सम्भव उपाय अपनाना है, जिससे कि काँग्रेस वर्किंग कमिटी इस प्रस्ताव को स्वीकार ही न कर सके। दूसरी बात, अगर आप इसमें असफल रह जाते हैं, तो आपको ऐसी स्थिति पैदा कर देनी है कि काँग्रेस-प्रतिनिधिगण वायसराय की एक्जीक्यूटिव काउन्सिल से इस्तीफा देने के लिए बाध्य हो जायें। यह कोई मुश्किल नहीं होगा। आपको वयसराय तथा एक्जीक्यूटिव काउन्सिल के काँग्रेस-सदस्यों के बीच दरार पैदा करनी है। इसमें कोई सन्देह नहीं है कि नयी एक्जीक्यूटिव काउन्सिल बनने के बाद वायसराय भारत की मानव शक्ति, धन तथा संसाधनों को सुदूर-पूर्व में ब्रिटिश के भावी युद्ध में झोंकना शुरु कर देंगे। इससे कई ऐसे मुद्दे पैदा होंगे, जिनमें भारत के हित ब्रिटेन के हितों से टकरा जायेंगे। ऐसी स्थिति में आपको प्रचार एवं आन्दोलनों की झड़ी लगा देनी है। इससे एक्जीक्यूटिव काउन्सिल के काँग्रेस-सदस्यों को ब्रिटिश हितों के खिलाफ जाते हुए भारत के हित में खड़ा होना पड़ेगा, जिससे वायसराय के साथ उनकी तकरार होगी और अन्ततः उन्हें इस्तीफा देना पड़ेगा। इसके बाद आपको भारतीय सैनिकों को बलि का बकरा बनाये जाने के खिलाफ आन्दोलन छेड़ना है। आपको भारत में ब्रिटेन की युद्ध चेष्टाओं को रोकने के लिए सैबोटाज करना है और भारतीय सैनिकों को युद्धक्षेत्र में भेजे जाने से रोकना है। जैसा कि आप जानते हैं कि पिछले पाँच वर्षों में ब्रिटिश उन देशों में भूमिगत गतिविधियों को चलाने तथा उन्हें संगठित करने के लिए जरूरी दिशा-निर्देश जारी कर रहे हैं, जो देश उसकी नियंत्रण से बाहर चले गये हैं। अगर आप इन इन दिशा-निर्देशों का पालन करें और भारत में ब्रिटेन के ही खिलाफ इनका उपयोग करें, तो आपको अच्छे परिणाम प्राप्त होंगे।
"साथियों, आज मैं इतना ही कहना चाहूँगा, लेकिन समाप्त करने से पहले मैं एकबार फिर आपको याद दिलाना चाहूँगा कि क्रान्तिकारी वह होता है, जो यह विश्वास रखता है कि उसका उद्देश्य न्यायपूर्ण है, और एक दिन वह अपने उद्देश्य को हासिल करेगा ही। जो असफलताओं से निरश हो जाये, वह क्रान्तिकारी नहीं हो सकता। एक क्रान्तिकारी का आदर्श वाक्य होता है- 'अच्छे से अच्छे की आशा रखो, मगर बुरे से बुरे के लिए तैयार रहो।' मुझे यकीन है कि अगर हम अपना संघर्ष जारी रखते हैं और अन्तर्राष्ट्रीय मंच पर अपने पत्ते सही खेलते हैं, तो इस युद्ध की समाप्ति तक हम अपनी आजादी को हासिल कर लेंगे।"   

कोई टिप्पणी नहीं:

एक टिप्पणी भेजें