रविवार, 8 जुलाई 2012

24 जून 1945 / ब्रिटेन के साथ कोई समझौता नहीं- सिंगापुर से प्रसारण




-: 24 जून 1945 :- 

ब्रिटेन के साथ कोई समझौता नहीं- सिंगापुर से प्रसारण

(24 जून 1945 को सिंगापुर में भारतीयों की एक विशाल रैली में नेताजी द्वारा दिये गये भाषण का सारांश इस सारांश को उसी रात स्वतंत्र भारत की अन्तरिम सरकार के रेडियो स्टेशन (सिंगापुर) से भारत के श्रोताओं के लिए प्रसारित किया गया था।)
दोस्तों! लगभग छह महीनों के बाद आज मैं फिर आपके सामने खड़ा हूँ वर्तमान परिस्थितियों तथा भविष्य की योजनाओं पर चर्चा करने के लिए। मुझे अफसोस है कि मैं बर्मा से आपके लिए खुशखबरी नहीं ला सका। पिछले साल इम्फाल पर कब्जा करने में हमारी असफलता के बाद दुशमन बर्मा में आगे बढ़ आया है। दुश्मन की मुख्य सेना को तो जापानी शाही सेना तथा भारतीय राष्ट्रीय सेना ने रोक रखा है, मगर टैंकों, बख्तरबन्द वाहनों इत्यादि के साथ उनकी मेकेनाइज्ड अग्रिम टुकड़ियाँ हमारी सुरक्षा पंक्ति को भेदने में कामयाब हो गयीं और हमारे मुख्यालय पर खरता मँडराने लगा था। हमें तय करना था कि दुश्मन की एडवाँस्ड मेकेनाइज्ड युनिटों को आक्रमण का न्यौता देते हुए हम अपना मुख्यालय वहीं बनाये रखें, या किसी सुरक्षित स्थान पर चले आयें। आजाद हिन्द फौज के अपने साथियों को पीछे सीमा पर लड़ता हुआ छोड़कर रंगून के खतरे वाले क्षेत्र से बाहर आना हमारे लिए कोई आसान नहीं था। मगर अन्तरिम सरकार के मंत्रियों ने बहुत ही सोच-विचार कर यह फैसला लिया कि कुछ कारणों से हमें किसी सुरक्षित स्थान पर चले जाना चाहिए।
रंगून से निकलने के बाद भी हम बर्मा में अपना मुख्यालय रख सकते थे, जैसा कि बर्मा सरकार- आदिपति डॉ. बा माव की सरकार ने किया। मगर भारत के हितों को देखते हुए इसे भी उचित नहीं समझा गया। वर्तमान में स्थिति यह है कि बर्मा के सभी हिस्सों में युद्ध चल रहा है- शान स्टेट्स, टोंगू एरिया, प्रोम के पास, अराकान में- सभी जगह। दुश्मन की मुख्य सेना को अब तक रोक कर रखा गया है; कोई नहीं कह सकता कि युद्ध कब तक चलेगा, कब तक दुश्मन बर्मा पर कब्जा कर लेगा। आजाद हिन्द फौज का संख्याबल हालाँकि जापानी सेना के मुकाबले कम है, फिर भी, आजाद हिन्द फौज के हमारे साथी बहुत ही कठिन परिस्थितियों में बहादूरीपूर्वक लड़ रहे हैं। हमारी मुख्य सेना बर्मा में युद्धरत हमारे साथियों के पास ही है, मगर हमें हमारा मुख्यालय वहाँ से हटाना पड़ा। सेना को मेजर जेनरल लोकनाथन की कमान में हाल ही में गठित बर्मा कमान के अधीन रखा गया है- लेफ्टिनेण्ट कर्नल अर्शद उनके चीफ ऑव स्टाफ हैं।
अन्तरिम सरकार को अपना मुख्यालय बर्मा से हटाना पड़ा ताकि बर्मा के बाहर सेना को संगठित कर अन्य मोर्चों पर युद्ध को जारी रखा जा सके। अगर हम बर्मा के बाहर थोड़ी-सी सेना न रखें, तो हमारी सारी सम्भावनायें बर्मा के हमारे साथियों पर टिक जायेंगी, और इसके बाद उत्पन्न किसी भी स्थिति में उन्हें अन्त तक लड़ना पड़ जायेगा। बर्मा से अपने मुख्यालय को हटाने के पीछे एक दूसरा कारण भी है। हमारे सामने यह साफ था कि हाल में मिली सैन्य सफलता के बाद दुश्मन अन्य मोर्चों पर नये सिरे से सैन्य एवं राजनीतिक हमले करेगा और हमारे लिए यह जरूरी था कि हम समय रहते तैयारी कर लें और जब हमला हो, तो इनका सामना कर सकें। हमारा दुर्भाग्य यह रहा कि बर्मा का संकट लगभग यूरोप के संकट के साथ ही आ गया। दुश्मन ने इसका पूरा फायदा उठाया, और तुरन्त भारत में एक राजनैतिक हमला बोल दिया। यह राजनैतिक हमला है- लॉर्ड वावेल का प्रस्ताव।
लॉर्ड वावेल के प्रस्ताव के पीछे दो मंशा है; पहला, पूर्वी एशिया के भावी युद्ध के लिए भारत से मदद निचोड़ना; और दूसरा, भारत को ब्रिटिश साम्राज्य का घरेलू मामला बनाने के लिए भारतीय लोगों के साथ एक समझौता करना। अँग्रेजों को अभी बड़ी संख्या में मानव बल, धन तथा संसाधनों की आवश्यकता है ताकि वह जापान के खिलाफ शुरु होने वाले युद्ध में अमेरीका की मदद कर सके। मगर इस वक्त ब्रिटिश सेना तथा ब्रिटिश भारतीय सेना- दोनों ही युद्ध से थकी हुई है और सुदूर-पूर्व में एक लम्बे अभियान में नहीं जाना चाहती, जहाँ की परिस्थितियाँ यूरोप के मुकाबले बहुत ज्यादा कठिन हैं। अतः अभी सिर्फ भारत से ही बलि के लिए बकरे जुटाये जा सकते हैं। मगर जब तक कि सभी भारतीय उत्साह के साथ अपने पूरे संसाधन सौंपने को तैयार न हो जायें, तब तक अँग्रेज सुदूर-पूर्व के अपने भावी युद्ध के लिए अपनी आवश्यकता के अनुसार मानव बल इकट्ठा नहीं कर सकते। लॉर्ड वावेल के प्रस्ताव का दूसरा मकसद भारत को ब्रिटिश साम्राज्य का घरेलू मामला बनाना, ताकि दूसरी मित्र विदेशी शक्तियाँ भारत की आजादी के लिए हस्तक्षेप न कर सकें। मित्रराष्ट्र वाले सभी देशों के लिए आजादी तथा लोकतंत्र की बहुत बातें करते हैं और दुनिया के गुलाम देशों ने अपनी-अपनी आजादी की दिशा में इन बातों का फायदा उठाना भी शुरु कर दिया है। सीरिया और लेबनान इसके उदाहरण हैं। सान-फ्रान्सिस्को कॉन्फ्रेन्स में सोवियत विदेश मंत्री एम. मोलोतोव द्वारा भारतीय प्रतिनिधियों की पहचान तथा बयान को स्वीकार करते हुए की गयी यह टिप्पणी कि- वह दिन दूर नहीं, जब आजाद भारत की बात दुनिया भर में सुनी जायेगी- ब्रिटेन के लिए एक चेतावनी है। ब्रिटिश सरकार ने यह समझ लिया है कि अगर भारतीय जनता के साथ कोई समझौता नहीं किया जाता, तो तो भारत एक अन्तर्राष्ट्रीय मुद्दा बना रहेगा और मित्रराष्ट्र के उसी के सहयोगी देश एकदिन भारत की आजादी के लिए मध्यस्थता करने लगेंगे- भले ही भारतीय लोग ब्रिटिश सरकार के खिलाफ हथियार न उठायें।
अगर आप भारत में ब्रिटेन के भावी उद्देश्यों को जानना चाहते हैं, तो आपको सिर्फ इतना याद रखना है कि ब्रिटेन की पूरी कोशिश यही है कि मित्र शक्तियाँ भारत की आजादी की वकालत न कर सके। इसलिए हमारी कोशिश यह होनी चाहिए कि ब्रिटेन भारत को अपने साम्राज्य का आन्तरिक मामला न बना सके। यह तभी हो सकता है जब भारत और ब्रिटेन के बीच भारत की सम्पूर्ण आजादी को छोड़ किसी और मामले में कोई समझौता न हो।
इस विश्वयुद्ध के शुरु होने के वर्षों पहले, जब लीग ऑव नेशन्स हुआ करता था, स्वर्गीय विट्ठलभाई पटेल और मैं जिनेवा गया था- लीग के सामने भारत की आजादी की माँग रखने के लिए। उस समय हम असफल रह गये थे, क्योंकि तब लीग ऑव नेशन्स में भारत की आजादी की वकालत करके कोई भी राष्ट्र ब्रिटेन से नाराजगी मोल लेना नहीं चाहता था। मगर तब से अब तक परिस्थितियाँ काफी बदल चुकी हैं। अब विश्व जनमत की अदालत में भारत की आजादी का मुद्दा उठाने के लिए बेहतर अवसर मौजूद है। जापान तथा आठ अन्य मित्र शक्तियों द्वारा स्वतंत्र भारत की अन्तरिम सरकार को मान्यता प्रदान करते हुए भारत की आजादी का समर्थन किये जाने से सारी दुनिया के सामने भारत की स्थिति और मजबूत हुई है।
इससे पहले कि मैं लॉर्ड वावेल के प्रस्ताव पर कुछ बोलूँ, मैं दुनिया की परिस्थितियों पर कुछ कहना चाहूँगा। जैसा कि छह महीनों पहले मैंने भविष्यवाणी की थी- जर्मनी के पतन के साथ ही सोवियत तथा ऐंग्लो-अमेरीकन के बीच तीव्र संघर्ष शुरु हो चुका है। अभी यूरोप में उन्होंने अपने मतभेदों को ढाँप रखा है, मगर यह सतही समझौता है- असली खेल तो एशिया में शुरु होगा। मतभेदों को सामयिक रुप से ढाँपने के बावजूद उनके बीच के बुनियादी मतभेद अब भी सामने हैं, और ये दूर होने वाले नहीं हैं। जर्मनी के पतन ने यूरोप में सोवियत संघ की ताकत और प्रभाव को ऐंग्लो-अमेरीकन के मुकाबले बहुत ज्यादा बढ़ा दिया है।
अमेरीका फिलहाल जापान के खिलाफ युद्ध में अपना ध्यान केन्द्रित कर रहा है और ब्रिटेन को पर्याप्त मदद देने के लिए बोल रहा है। मेरी व्यक्तिगत राय है कि पूर्वी एशिया का भावी युद्ध दो मुख्य लड़ाईयों में लड़ी जायेगी। एक जापान की मुख्यभूमि में, तो दूसरी चीन में। अभी मैं यह नहीं कह सकता कि कौन-सी लड़ाई पहले शुरु होगी, मगर इतना तय है कि जापान दोनों ही लड़ाइयों के लिए पूरी तरह से तैयार है। मैं यह भी जानता हूँ कि पूर्वी एशिया के हर भाग में जापान की सशस्त्र सेनाओं को आत्मनिर्भर ढंग से संगठित रखा गया है। अगर एक युद्धक्षेत्र में झटका लगता भी है, तो दूसरे युद्धक्षेत्र में जापानी सेना की लड़ाकू शक्ति पर इसका कोई असर नहीं पड़ने वाला। ऐंग्लो-अमेरीकन अच्छी तरह जानते हैं कि उनके सामने एक लम्बी और भीषण लड़ाई है। इस सम्बन्ध में एक रोचक बात पर ध्यान दिया जाना चाहिए। हाल ही में बर्मा में युद्ध करने वाले ब्रिटिश 14वीं वाहिनी के कमाण्डर जेनरल स्लिम ने इंग्लैण्ड में एक साक्षात्कार के दौरान यह बात कही है। उनकी टिप्पणी थी कि बहुत-से देश अन्त तक लड़ते रहने की बात कहते हैं, पर वास्तव में सिर्फ एक ही देश है, जो ऐसा कर सकता है और वह है- जापान। उधर जापान हर परिस्थिति में लड़ाई जारी रखेगा, इधर हम भारत की आजादी के लिए ऐसा ही करेंगे, और आजाद हिन्द फौज आखिरी व्यक्ति तथा आखिरी गोली तक लड़ती रहेगी।
व्यक्तिगत रुप से मुझे इस पर सन्देह है कि मार्शल स्तालिन, प्रेसीडेण्ट ट्रूमैन और प्राईम मिनिस्टर चर्चिल के बीच ईस्ट-एशिया की समस्या से निपटने के लिए जो कॉन्फ्रेन्स होनेवाली है, उससे कुछ निकलकर आयेगा। चुंगकिंग और येनान के बीच के तनावपूर्ण रिश्तों को देखते हुए और चीन में अमेरीका की महत्वाकांक्षा को देखते हुए मुझे नहीं लगता कि चीन की समस्या को सफलतापूर्वक हल किया जा सकेगा। मेरी  समझ में नहीं आ रहा कि ये तीनों शक्तियाँ चीन के मामले में किसी एक मत पर कैसे पहुँचेंगी। मेरे विचार से, येनान सरकार के लिए नानकिंग के साथ समझौता करना ज्यादा आसान रहेगा बनिस्पत चुंगकिंग के। जब तक चुंगकिंग अमेरीका के नियंत्रण में है, मुझे तो चीन का एकीकरण सम्भव नहीं दीखता। जहाँ तक जापान का प्रश्न है, चीन के बारे में उसकी नयी नीति और युद्ध समाप्त होने पर चीन से अपने सैनिक हटा लेने के उसके वादे से स्पष्ट है कि वह चीन के एकीकरण का स्वागत करेगा। उसकी एकमात्र मंशा है, और सदा रहेगी कि ऐंग्लो-अमेरीकन शक्तियों को चीन से दूर रखा जाय। हर भारतीय चीन के प्रति सद्भावना व्यक्त करता है और एक शक्तिशाली एवं एकीकृत चीन को उनके महान नेता सन-यात-सेन द्वारा दिखाये गये रास्ते पर चलते हुए देखना चाहता है। आजाद चीन और आजाद भारत के बिना आजाद एशिया की कल्पना सम्भव नहीं है।
बर्मा में मिली विफलताओं के बावजूद हमारी आशा और अन्तिम विजय के प्रति हमारा  विश्वास अटूट है। तीन मुख्य कारकों के कारण इस युद्ध की समाप्ति तक हम भारत की आजादी हासिल कर सकते हैं; पहला- पूर्वी एशिया में हमारा सशस्त्र संघर्ष; दूसरा- अन्तर्राष्ट्रीय क्षेत्र में हमारी कूटनीति; तीसरा- भारत के अन्दर प्रतिरोध। कहने की आवश्यकता नहीं कि भारत के अन्दर का प्रतिरोध जितना ज्यादा होगा, आजादी मिलने में उतना ही कम समय लगेगा। यही नहीं, भारत के अन्दर का प्रतिरोध सिर्फ नैतिक किस्म का रहता है, तब भी भारत एक अन्तर्राष्ट्रीय मुद्दा बना रहेगा और अन्तर्राष्ट्रीय मंच पर चर्चा के लिए पर्याप्त गुंजाइश बनी रहेगी। सबसे मुश्किल समस्या हमारे लिए है- पूर्वी एशिया में ब्रिटिश के खिलाफ तीखे संघर्ष को जारी रखना। इसका दोहरा असर पड़ेगा- एक ओर यह भारत के हितों की रक्षा करेगा और दुश्मनों के दुष्प्रचार से देशवासियों के मन में पराजय की जो भावना घर कर रही है, उससे दूर करेगा। दूसरी तरफ, दुनिया के सामने यह हमारे जायज दावे को प्रकट करेगा और मित्र-शक्तियों का समर्थन हासिल करने में मदद करेगा। सशस्त्र संघर्ष जारी रखते वक्त हमें अपनी अन्तिम जीत का भरोसा रखना होगा। इस सम्बन्ध में मैं आपको बताना चाहूँगा कि पिछ्ले विश्वयुद्ध में संयुक्त शक्तियों के सुप्रीम कमाण्डर मार्शल फॉक ने अपने संस्मरण में क्या लिखा है। जीत व हार का जिक्र करते हुए वे लिखते हैं- ‘वही शत्रु पराजित होता है, जो खुद को पराजित मान लेता है। जब तक कि एक सेना खुद को पराजित नहीं मान लेती, किसी एक खास क्षेत्र में उसकी पराजय से यह मायने नहीं निकलता कि उसका पूर्ण पराजय हो गया है।’ उदाहरण के लिए अँग्रेजों को 1942 में बर्मा से निकाल बाहर कर दिया गया था, पर वे फिर से बर्मा में प्रवेश कर गये हैं। इसी प्रकार, कौन कह सकता है कि हम फिर से बर्मा पर अधिकार नहीं जमा सकते, जिसे हमने खो दिया है? जब हम बर्मा छोड़ रहे थे, तब मैंने अपने साथियों को मार्शल फॉक की उक्त टिप्पणी की याद दिलायी थी और कहा था कि किसी भी तरह से हम पराजित नहीं हैं, क्योंकि हममें से किसी ने भी यह नहीं माना है कि हम पराजित हो गये हैं, या हमने इस युद्ध को छोड़ दिया है।
एक सच्चा क्रान्तिकारी वही हो सकता है, जो कभी हार स्वीकार न करे, कभी निराश न हो और दिल छोटा न करे। एक सच्चा क्रान्तिकारी मानता है कि उसका उद्देश्य न्यायसंगत है, और उसे पक्का विश्वास होता है कि एक-न-एक दिन उसके उद्देश्य की पूर्ति होगी। हम बर्मा में पहले दौर की लड़ाई हार जरुर गये हैं, मगर मैं समझता हूँ कि हमने दुश्मनों तक को प्रभावित किया है। बर्मा में प्रवेश करने के बाद दुश्मन को स्वतंत्र भारत की अन्तरिम सरकार और आजाद हिन्द फौज के कार्यों के बारे में कुछ सुनने को मिला होगा। पहले दुश्मन हमें हमेशा ‘जापान की कठपुतली’ सेना कहकर सम्बोधित करता था। बर्मा में प्रवेश करने के बाद उन्होंने हमें ‘जापान-प्रेरित भारतीय राष्ट्रीय सेना’ कहना शुरु कर दिया था। मगर अब वे हमें ‘भारतीय राष्ट्रीय सेना’- ‘इण्डियन नेशनल आर्मी’ कहते हैं। जब अँग्रेजों ने मण्डालय को कब्जे में लिया, तब उन्होंने आदेश जारी किया कि कोई भारतीय ‘जय हिन्द’ अभिवादन का इस्तेमाल नहीं करेगा, जिसका अर्थ होता है- ‘भारत की जीत’- यह तो आप जानते ही हैं। इसका परिणाम यह हुआ कि मण्डालय में ‘बालक सेना’ के लड़के-लड़कियाँ रास्तों पर उतर आये और ब्रिटिश अधिकारियों का ‘जय हिन्द’ से अभिवादन करने लगे। हम यही चाहते हैं कि अगर हम बहादूरीपूर्वक लड़ते रहें और अपना रक्त बहाते रहें, तो हम न केवल अब तक तटस्थ एवं उदासीन रह रहे अपने देशवासियों को, बल्कि दुश्मनों को भी प्रभावित कर सकते हैं।   
अब मैं लॉर्ड वावेल के प्रस्ताव पर लौटता हूँ। इस प्रस्ताव में तीन मुख्य बातें हैं- पहला, ब्रिटिश साम्राज्य के अधीन एक स्व-शासन का वादा; दूसरा, वायसराय की कार्यकारी परिषद में ज्यादा सीटों की व्यवस्था; तीसरा, प्रान्तों में मंत्रीमण्डलों की बहाली। इस प्रस्ताव में ऐसा कुछ भी नहीं है, जिसके चलते कोई राष्ट्रवादी भारतीय इसकी सराहना कर सके, और सामान्य स्थिति में एक भी काँग्रेसी ने इसकी तरफ देखने की जहमत नहीं उठाई होती। पहली बात, अँग्रेज हमेशा से ही सेल्फ-गवर्नमेण्ट की बात करते रहे हैं; दूसरी बात, वायसराय की एक्जीक्यूटिव काउन्सिल के सदस्य सिर्फ वायसराय के प्रति उत्तरदायी रहेंगे- किसी और के प्रति नहीं, ऐसे में काउन्सिल में सीटों की बढ़ोतरी से आजादी की दिशा में कोई प्रगति नहीं होने वाली है। इनके अलावे, वायसराय के पास वीटो की शक्ति रहेगी, जिससे वे एक्जीक्यूटिव काउन्सिल के किसी भी प्रस्ताव को गिरा सकते हैं, चाहे वह सर्वसम्मति से ही क्यों न पारित हुआ हो। संक्षेप में, वायसराय की यह कार्यकारी परिषद किसी मंत्रीमण्डल के समान नहीं, बल्कि एक परामर्शदात्री संस्था के रुप में काम करेगी- शक्ति वायसराय के ही हाथों में रहेगी। तीसरी बात, प्रान्तों में मंत्रीमण्डलों की फिर से बहाली का कोई महत्व नहीं है, क्योंकि 1939 में ब्रिटेन के युद्ध में भाग लेने के विरोध में आठ प्रान्तों के काँग्रेसी मंत्रीमण्डल अपनी इच्छा से इस्तीफा दे चुके हैं।
हमारा दुर्भाग्य ही है कि हमारे जो नेता अभी जेलों से बाहर हैं, वे हाल में ऐंग्लो-अमेरीकन शक्तियों को मिली जीत से इतने भयभीत हो गये हैं कि उन्होंने एक पराजित मानसिकता विकसित कर ली है। यही कारण है कि महात्मा गाँधी और काँग्रेस कार्यकारिणी ने 25 तारीख को शिमला सम्मेलन में भाग लेने का निर्णय ले लिया है, जहाँ लॉर्ड वावेल के प्रस्ताव पर चर्चा होगी। सो, अब हम अपने देशवासियों मनाने की हर सम्भव कोशिश कर रहे हैं कि वे लॉर्ड वावेल के प्रस्ताव को स्वीकार न करें और इस प्रकार, शिमला सम्मेलन असफल हो जाय। अगर हम इसमें असफल रह जाते हैं और काँग्रेस वायसराय की कार्यकारी परिषद में शामिल होने की पेशकश को स्वीकार कर लेती है, तो हम भारत के अन्दर ऐसी स्थिति पैदा करने की कोशिश करेंगे, जिसमें काँग्रेस को कार्यकारी परिषद से इस्तीफा देने के लिए बाध्य होना पड़ेगा। हम भारत व  ब्रिटेन के बीच किसी भी समझौते को रोकने के लिए कटिबद्ध हैं, ताकि भारत एक अन्तर्राष्ट्रीय मुद्दा बना रहे और इस प्रकार हम सम्पूर्ण आजादी की ओर आगे बढ़ सकें।
यहाँ पूर्वी एशिया में हमारे पास दो काम हैं। पहला तो यह है कि 4 फरवरी 1943 को जिस सशस्त्र संघर्ष की हमने शुरुआत की थी, उसे जारी रखना है; और दूसरा यह कि अन्तर्राष्ट्रीय क्षेत्र में भारत की आजादी के मुद्दे को उठाये रखना है। साथ ही तथाकथित राष्ट्रसंघ के खेमे में उठने वाले हर मतभेद का- खासकर, सोवियत संघ एवं ऐंग्लो-अमेरीकन के बीच के मतभेद का- लाभ उठाना है। पूर्वी एशिया में हमारे युद्ध के लिए मलाया हमारा आधार है। जब तक अँग्रेजों को मलाया से दूर रखा जाता है, भारत की आजादी के लिए हमारे कार्य बिना किसी बाधा के जारी रहेंगे। अतः अगर किसी भी समय अँग्रेज मलाया में कदम रखते हैं, तो हम अपनी सारी ताकत के साथ उनसे युद्ध करेंगे।
जब भारत की आजादी का इतिहास लिखा जायेगा, मलाया में रह रहे भारतीयों को उस इतिहास में गौरवशाली स्थान दिया जायेगा। भारत की आजादी के संघर्ष में मलाया के भारतीयों द्वारा मानव बल, धन एवं सामग्री के रुप में जो योगदान दिया गया है, वह महान है। भारत इसके लिए सदा कृतज्ञ रहेग। खासतौर पर, मलाया को आजाद हिन्द फौज तथा आजाद हिन्द की अन्तरिम सरकार की जन्मस्थली के रुप में सदा याद किया जायेगा। मलाया ने बड़ी संख्या में अपने नौजवान दिये हैं, जो भारत की आजादी के लिए बहादूरी से लड़े हैं और शहीद हुए हैं। मलाया ने झाँसी की रानी रेजीमेण्ट की पंक्तियों के लिए सबसे बड़ा योगदान दिया है। मलाया के भारतीयों ने जो शानदार कीर्तिमान स्थापित किया है, उसे उन्हें अवश्य कायम रखना चाहिए। यह मलाया ही है, जहाँ से सम्पूर्ण लामबन्दी का आह्वान पहली बार हुआ था।
आज मैं आपसे और लोगों की, और रुपयों की तथा और सामग्रियों के लिए अपील कर रहा हूँ। हाल ही में बर्मा की हमारी पराजयों ने आपकी जिम्मेदारियों को और बढ़ा दिया है। आपके अतीत के योगदानों को जानते हुए मुझे जरा भी सन्देह नहीं है कि आप भविष्य में इससे भी ज्यादा योगदान देंगे। मैं सिर्फ यही चाहूँगा कि आप हमारे उद्देश्य के औचित्य के प्रति अपना भरोसा बनाये रखें। इस भरोसे को आप जब तक बनाये रखेंगे, अन्तिम विजय के प्रति आपकी आशा और विश्वास भी बना रहेगा।
जय हिन्द।

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