साथियों, जय हिन्द.
मैं बहुत-बहुत शर्मिन्दा हूँ कि मैंने पिछले करीब 8 महीनों से अनुवाद के इस कार्य को छोड़ रखा था. जैसा कि मैंने पहले ही कहा है, अनुवाद का कार्य जरा दुष्कर है, दूसरे "लॉर्ड वावेल" का अध्याय खत्म नहीं हो रहा है. इस कारण मेरी रुची घट गयी थी. अभी भी वावेल-प्रस्ताव पर 5-7 वक्तव्य बाकी हैं- उसके बाद जाकर विषयवस्तु बदलेगा.
जबकि सुदूर-पूर्व के युद्ध को अमेरिका ने 'परमाणु बम' का प्रयोग कर समाप्त कर दिया था- वावेल के प्रस्ताव को अमल करने की जरुरत नहीं पड़ी थी.
खैर, आज मैं अधूरा अनुवाद ही प्रस्तुत कर रहा हूँ, क्योंकि अन्तराल बहुत ज्यादा हो गया है.
क्षमाप्रार्थना सहित,
-जयदीप शेखर
वावेल प्रस्ताव को कचरे की ढेर में फेंक दो- सिंगापुर से प्रसारण
-: 21 जून 1945 :-
भारत में मेरी बहनों और भाइयों! पिछले तीन दिनों से मैं- राष्ट्रीय व अन्तर्राष्ट्रीय- दोनों ही मुद्दों पर एक व्यापक दृष्टिकोण के साथ आपसे बातें कर रहा था; और भारत की समस्या का विश्लेषण अन्तर्राष्ट्रीय पृष्ठभूमि पर कर रहा था, जो उचित भी है। विभिन्न एजेन्सियों के माध्यम से जो खबरें हम तक पहुँच रही हैं, उनसे ऐसा प्रतीत होता है कि जो आज अपने विचारों को मुखर अभिव्यक्ति दे रहे हैं, वे बहुत ही संकीर्ण एवं अदूरदर्शी दृष्टिकोण से भारत की समस्याओं का आकलन कर रहे हैं। जो भारत की समस्या को सही नजरिये से देख सकते हैं, उनमें से ज्यादातर अपनी आवाज को भारत के बाहर पहुँचा पाने में असमर्थ हैं; विशेषकर इसलिए कि उनमें से कुछ हिरासत में हैं। अगर महात्मा गाँधी तथा काँग्रेस कार्य समिति के सदस्यों ने ब्रिटिश सरकार के साथ वार्ता करने से पहले सभी राजनीतिक बन्दियों की रिहाई के लिए दवाब डाला होता, तो हमें चिन्तित होने की कोई जरुरत नहीं थी। अगर राजनीतिक कैदियों की रिहाई हो गयी होती और ऑल इण्डिया काँग्रेस का पूर्ण सम्मेलन हुआ होता, तब सम्पूर्ण काँग्रेस संगठन का अभिमत सामने आ जाता। लेकिन ब्रिटिश सरकार ने, अपनी चिर-परिचित धूर्तता दिखाते हुए जानबूझ कर सिर्फ काँग्रेस वर्किंग कमिटी के सदस्यों को रिहा किया और बाकियों को जेल में रखा, ताकि काँग्रेस संगठन के अन्दर के समूचे वाम धड़े की आवाज को मूक बनाया जा सके।
मेरे दिमाग में इस बात को लेकर जरा भी सन्देह नहीं है कि आज
देश की जनता का अभिमत, खास तौर पर काँग्रेस संगठन का अभिमत क्रान्तिकारी दिशा में
पर्याप्त आगे बढ़ गया है- बनिस्पत 1939 के, जब वर्तमान युद्ध की शुरुआत हुई थी।
परिणामस्वरुप, अगर काँग्रेस की आम सभा बुलायी जाती है, या कम-से-कम ऑल इण्डिया
काँग्रेस कमिटी की पूर्ण बैठक बुलायी जाती है, तो लॉर्ड वावेल के प्रस्ताव को भारी
बहुमत के साथ रद्द कर दिया जायेगा। ब्रिटिश सरकार तथा लॉर्ड वावेल भारत की
परिस्थिति को जानते हैं, और वे महसूस कर रहे हैं कि अगर ब्रिटिश प्रस्ताव को
काँग्रेस की आम सभा या ऑल इण्डिया काँग्रेस कमिटी के भरोसे छोड़ा गया, तो इसे
स्वीकृति मिलने की सम्भावना रत्ती भर भी नहीं है। अतः, उनलोगों ने ऐसी स्थिति पैदा
कर दी है कि काँग्रेस की ओर से सिर्फ वर्किंग कमिटी ही लॉर्ड वावेल के प्रस्ताव पर
फैसला ले। जबकि काँग्रेस के संविधान के अनुसार अकेली वर्किंग कमिटी इतने
महत्वपूर्ण मुद्दे पर काँग्रेस की ओर से अन्तिम निर्णय नहीं ले सकती।
हालाँकि मैं यह स्वीकार करता हूँ कि अगर काँग्रेस वर्किंग
कमिटी काँग्रेस के सभी धड़ों का प्रतिनिधित्व करती है; या वास्तव में परिस्थिति
आपात्कालीन है, तो इसके द्वारा सिर्फ अपनी जिम्मेवारी पर इतने महत्वपूर्ण मुद्दे
को निपटाये जाने को कुछ हद तक उचित ठहराया जा सकता है- वैधानिक तो यह फिर भी नहीं
रहेगा। लेकिन यह सर्वविदित है कि काँग्रेस के वामपन्थी धड़े का, जो कि खासा
प्रभावशाली है, वर्किंग कमिटी में बिलकुल ही प्रतिनिधित्व नहीं है। और कोई भी इसे
साबित नहीं कर सकता है कि इस वक्त देश में आपात्कालीन स्थिति है, जिस कारण वर्किंग
कमिटी को ऑल इण्डिया काँग्रेस कमिटी तथा काँग्रेस के कार्यकर्ताओं-पदाधिकारियों के
पीठ पीछे इतना महत्वपूर्ण निर्णय लेना पड़ रहा है। मैं समझ सकता हूँ कि ब्रिटिश
सरकार ने अपना मतलब निकालने के लिए मामले को बड़ी चतुराई से ऑल इण्डिया काँग्रेस
कमिटी या काँग्रेस के अधिवेशन के सामने रखने के बजाय सिर्फ वर्किंग कमिटी के सामने
रखा है; मगर मैं यह नहीं समझ पा रहा हूँ कि वर्किंग कमिटी के सदस्यगण लॉर्ड वावेल
द्वारा बिछाये गये इस फन्दे को स्पष्ट रुप से देखते हुए भी इसमें भला क्यों फँसना
चाहते हैं। काँग्रेस के संविधान के प्रावधान के अनुसार वर्किंग कमिटी मात्र एक
कार्यकारी निकाय है, न कि विधायी- इस तथ्य के अलावे अगर विशुद्ध नैतिकता की बात की
जाय, तो वर्किंग कमिटी के लिए यह गलत एवं अशोभनीय है कि वह एक ऐसे मामले को
निपटाये, जो आने वाले दशकों तक सारी काँग्रेस तथा सारे भारत के भविष्य को प्रभावित
करने वाला है। हालाँकि देर हो चुकी है, फिर भी, मैं ईमानदारी एवं विनम्रता के साथ
महात्मा गाँधी से अपील करता हूँ कि काँग्रेस के पीठ पीछे कोई फैसला न लिया जाय।
मैं यह अपील खासतौर पर इसलिए कर रहा हूँ कि लॉर्ड वावेल का प्रस्ताव स्वीकार करके
हम जितना आगे बढ़ चुके हैं, उससे पीछे हट जायेंगे; काँग्रेस के आधारभूत सिद्धान्तों
एवं प्रस्तावों को शून्य कर देंगे, और एक लम्बे समय से काँग्रेस द्वारा किये गये
कार्यों एवं दिये गये बलिदानों को व्यर्थ कर देंगे।
अब मैं इस पर कुछ कहना चाहूँगा कि लॉर्ड वावेल के प्रस्ताव
को स्वीकार कर लेने प्रभाव क्या होगा। सबसे पहले तो- भारतीय राष्ट्रीय काँग्रेस का
उद्देश्य है सम्पूर्ण आजादी, जबकि लॉर्ड वावेल के प्रस्ताव में बड़ी चालाकी से
आजादी शब्द के प्रयोग से भी बचा गया है। दूसरी बात, 1938-39 में काँग्रेस ने ब्रिटेन
के साम्राज्यवादी युद्ध में भाग लेने से इन्कार कर दिया था और अपनी युद्ध-विरोधी
नीति के कारण काँग्रेस को काफी नुकसान उठाना पड़ा था। लेकिन वॉवेल के प्रस्ताव का
मूलभूत आधार ही यह है कि जो कोई भी प्रस्ताव को स्वीकार करेगा उसे ब्रिटेन के
सुदूर-पूर्व के युद्ध में भाग लेने के लिए तहे-दिल से शपथ लेनी होगी, और इस युद्ध
को किसी भी नजरिये से भारत की सुरक्षा का युद्ध नहीं कहा जा सकता। तीसरी बात,
प्रस्ताव को स्वीकार करने का अर्थ होगा- 1942 के ‘भारत छोड़ो’ प्रस्ताव से मुँह
मोड़ना। प्रस्ताव को स्वीकार करने के बाद काँग्रेस को अपने नारों ‘आजादी या मौत’ और
‘करो या मरो’ का त्याग करना होगा लॉर्ड वावेल के प्रस्ताव में निहित विचारों को
अभिव्यक्ति देने वाले नारों को गढ़ना होगा।
मैं अब यह जानना चाहूँगा कि अगर काँग्रेस अपने आधारभूत
सिद्धान्तों एवं प्रस्तावों का त्याग करते हुए वर्तमान प्रस्ताव को स्वीकार करती
है, तो वह कैसे खुद को भारतीय संघों के उदार महासंघ के रुप में स्थापित करेगी। जैसा
कि मैंने अपने पिछले सम्बोधन में कहा था, सामान्य परिस्थितियों में कोई भी
काँग्रेसी लॉर्ड वावेल के प्रस्ताव की ओर झाँकने भी नहीं जाता, इस पर ध्यान देना
तो दूर की बात है। आज काँग्रेस के कुछ नेताओं में समझौता करने का जो रवैया दीख रहा
है, उसकी एक ही मनोवैज्ञानिक व्याख्या हो सकती है कि वे शायद यह महसूस करने लगे
हैं कि ऐंग्लो-अमेरिकी शक्तियाँ युद्ध जीतने जा रही हैं और हमारी आजादी की कोई
उम्मीद नहीं है। परिस्थिति की यह अवधारणा पूरी तरह से गलत है। यूरोप और बर्मा में
ऐंग्लो-अमेरिकन शक्तियों की हालिया सफलताओं के बावजूद भारत का मुद्दा
अन्तर्राष्ट्रीय मामलों में एक जीवन्त मुद्दा बन गया है। पूर्वी एशिया में युद्ध
की अन्तिम परिणति चाहे जो भी हो, ऐंग्लो-अमेरिकीयों तक को यह स्वीकार करना पड़ेगा
कि पूर्वी एशिया का भावी अभियान बहुत लम्बा और भीषण होने वाला है और जापान एक-एक
ईंच जमीन के लिए युद्ध करने वाला है। बर्मा में भी- हमारी हालिया पराजयों के
बावजूद- देश के विभिन्न हिस्सों के कई सेक्टरों में भीषण संघर्ष जारी है। जहाँ
जापान अपनी पूरी ताकत, दृढ़ता और साहस से संघर्ष करेगा, जिसके लिए कि वह जाना जाता
है, वहीं भारतीय भी पूर्वी एशिया में ब्रिटिश और उसके सहयोगियों के खिलाफ संघर्ष
जारी रखेंगे। बर्मा में हाल में हुए नुकसानों के बावजूद आजाद हिन्द फौज का मुख्य
हिस्सा चाक-चौबन्द है और आजाद हिन्द फौज अपने आखिरी व्यक्ति तथा आखिरी गोली तक
लड़ेगी।
अगर घर में भारतीय ब्रिटिश साम्राज्य के प्रति अपने
प्रतिरोध का त्याग नहीं करते हैं, तो युद्ध समाप्त होते-होते भारत की आजादी को कोई
रोक नहीं सकता। भारत के अन्दर प्रतिरोध, पूर्वी एशिया में सशस्त्र संघर्ष और
अन्तर्राष्ट्रीय क्षेत्र में एक यथार्थवादी नीति- इन तीनों के संयोजन से, जब तक
युद्ध समाप्त होता है, तब तक भारत को एक स्वतंत्र देश के रुप में उभरना ही है।
लेकिन, अपनी स्वतंत्रता प्राप्त करने के लिए अँग्रेजों के खिलाफ आन्तरिक संघर्ष
जारी रखने की हमें गारण्टी देनी होगी। मैं इस स्थिति में हूँ कि पूर्वी एशिया में
सशस्त्र संघर्ष जारी रखने की मैं गारण्टी दे सकता हूँ। मैं यह भी आश्वासन दे सकता
हूँ कि अगर भारत के अन्दर ब्रिटिश साम्राज्य के खिलाफ प्रतिरोध जारी रहता है, तो
भारत एक अन्तर्राष्ट्रीय मुद्दा बना रहेगा, और अन्तर्राष्ट्रीय क्षेत्र की कूटनीति
हमारे उद्देश्य की प्राप्ति में पर्याप्त मददगार साबित होगी। वर्तमान में, भारत के
अन्दर की समस्याओं से ब्रिटिश ज्यादा चिन्तित नहीं हैं, लेकिन उन्हें दो बातों का
डर सता रहा है। उन्हें डर है कि अगर भारत के अन्दर नैतिक प्रतिरोध जारी रहता है,
तो भारत एक अन्तर्राष्ट्रीय मुद्दा बना रहेगा। उन्हें यह भी डर है कि अगर
अँग्रेजों के प्रति भारतीयों का व्यवहार शत्रुतापूर्ण बना रहा, तो सुदूर-पूर्व के
अपने भावी अभियान के लिए भारत से मानव शक्ति एवं संसाधन जुटाना उनके लिए असम्भव हो
जायेगा। अँग्रेज जानते हैं कि बड़े परिमाण में भारत की मदद- खासकर, भारत की मानव
शक्ति की मदद, के बिना वे सुदूर-पूर्व का युद्ध नहीं जीत सकते। लॉर्ड वावेल का
प्रस्ताव एक तीर से दो शिकार की गणना पर आधारित है- पहला, ब्रिटेन के साम्राज्यवादी
युद्ध में भारतीय तन-मन-धन से शामिल हों, यह सुनिश्चित करने के लिए एक चारे के रुप
में यह प्रस्ताव लाया गया है। दूसरा, यह प्रस्ताव भारत के मुद्दे को ब्रिटिश
साम्राज्य के एक आन्तरिक मुद्दे में परिवर्तित कर देगा और इस प्रकार, सोवियत रशिया
सहित युनाइटेड नेशन्स से मिलने वाली मदद को समाप्त कर देगा।
इस सम्बन्ध में मैं 19
तारीख वाले अपने बयान को दुहराना चाहूँगा। उस बयान में मैंने बहुत ही विश्वसनीय सूत्र से प्राप्त इस सूचना
को प्रकट किया था कि लॉर्ड वावेल के इस भयावह प्रस्ताव का आधार और मूल है- ब्रिटिश
सरकार की यह माँग कि पूर्वी एशिया में बर्मा से आगे के क्षेत्रों तथा प्रशान्त
क्षेत्र में लड़े जाने वाले भावी युद्ध के लिए भारत पाँच लाख सैनिक दे। अगर भारतीय
लोगों की मदद के बिना ही ब्रिटिश सरकार को इतनी मदद मिल गयी होती, तो वावेल के इस
प्रस्ताव का जन्म ही नहीं हुआ होता। लेकिन भारतीय ब्रिटिश सेना, ब्रिटिश सेना की
तरह ही युद्ध से थकी-हारी हुई है और ब्रिटिश सरकार तथा लॉर्ड वावेल को लगता है कि
इतने बड़े परिमाण में सैन्य-सहायता पाने के लिए भारत में जन-सहानुभूति एवं समर्थन
हासिल करना जरूरी है।
इससे पहले कि कार्य समिति के सदस्यगण लॉर्ड वावेल के
प्रस्ताव को स्वीकार करें, उन्हें सुदूर-पूर्व में ब्रिटेन के साम्राज्यवादी युद्ध
में आधे मिलियन भारतीयों की बलि देने के लिए तैयार होना होगा। मैं कल्पना कर सकता
हूँ कि काँग्रेस क्या खोने वाली है, अगर वह लॉर्ड वावेल के प्रस्ताव को स्वीकार
करती है। नतीजतन, प्रस्ताव को स्वीकार करने का फैसला लेने से पहले कार्यसमिति के
सदस्यों को सावधानीपूर्वक यह हिसाब लगाना होगा कि वे इससे क्या हासिल करने वाले
हैं, और जो वे हासिल करने वाले हैं, क्या वह उसकी भरपाई करने के पर्याप्त होगी, जो
हम खोने वाले हैं। जाहिर है कि जो हम पाने वाले वाले हैं, अगर वह अगर खोने के
मुकाबले बहुत कम है, तो हमें इस प्रस्ताव को खारिज कर देना चाहिए, जैसा कि 1942
में सर स्ट्राफोर्ड क्रिप्स के प्रस्ताव को खारिज किया गया था। ऐसे काँग्रेसी भी
हो सकते हैं, जो यह सोचते हैं कि आज जो हम करने जा रहे हैं, उसे आगे चलकर भी करना
ही पड़ेगा। यह दृष्टिकोण गलत है। मैंने अपनी पिछली वार्ता में कहा है कि अगर बुरी
से भी बुरी स्थिति पैदा होती है और भारत वर्तमान युद्ध के दौरान आजादी प्राप्त
नहीं कर पाता है, तो जैसे ही युद्ध समाप्त होगा, हमें तुरन्त दूसरा अवसर मिलेगा।
***
(निम्न हिस्से का अनुवाद यथासमय किया जायेगा:)
The
change-over from war to peace is a period of unrest. During this period of
unrest even a victorious power is at a disadvantage because it needs rest and
relaxation. That is why the revolutions of Ireland and Turkey after the First
World War, revolutions which failed during the war period attained complete
success after the termination of the war.
On reading a report which is before me today, I find that the Congress
President, Maulana Abul Kalam Azad, said: 'If the present negotiations fail the
Congress will wait till the end of the war before launching a further attempt'.
I cannot agree with the Congress President that we should not renew the
struggle at home while the war is on, but I agree with him that at the end of
the war, if India still happens to be enslaved, Indians will again have another
opportunity of launching a large-scale offensive against British imperialism,
and I have no doubt in my mind that in that post-war campaign the demobilised
members of present British-Indian Army will play avery important role.
Since it is apparent that most of the Indian leaders who are now free are
considering Lord Wavell's offer not from the broader but fromavery narrow and
short-sighted point of view, I shall now consider what our comparative losses
and gains would be if we were to accept that offer. What Lord Wavell has
offered us if we agree to whole-hearted participation in the coming war in the
Far East is as follows: (i) The promise of self-government; (ii) some jobs on
the Viceroy's Executive Council; and (iii) the restoration of Congress
Ministries in the Provinces. All these three things have always been before us.
The British Government has always promised us self-government. We had eight
Ministries under our control in the Provinces in 1939 and these we resigned
voluntarily. Jobs in the Viceroy's Executive Council have always been open to
such Congressmen as were prepared to sell themselves. It may be remarked that
the Wavell offer gives us more seats in the Executive Council, but as against
that there is an express stipulation that acceptance of the offer will mean
whole-hearted participation in Britain's war. Was this not the reason why the
Congress Ministries resigned in 1939? They could have remained in office after
1939 without giving a pledge of whole-hearted participation in the war. But,
they preferred to resign rather than sacrifice the country's resources in
fighting a war to keep British imperialism alive.
In Britain many people are waxing eloquent over the merits of the offer on the
ground that a considerable advance has been made in the Indianisation of the
Executive Council. I hope that no Congressman will adopt a similar
attitudebecause the Congress demand is not Indianisation of the services or of
the Executive Council, but the withdrawal from India of the British Power,
wherein are included the Viceroy, as well as the British Commander-in-Chief.
Lord Wavell has in fact made it quite clear that his offer does not imply any
constitutional change. Moreover, the newly constituted Viceroy's Council will
only be an advisory body and it is the Viceroy who will finally select these
members who will be responsible not to the Central Legislature but to the Viceroy
personally. Moreover, inside the Executive Council the will of the majority
will not prevail and the Viceroy will have full powers to veto recommendations
or proposals of the Executive Council. There is no question of collective
responsibility or majority rule in the Executive Council. The Executive Council
cannot, therefore, be called a Cabinet by any stretch of imagination. In the
Executive Council the chief position will be held by the British War Member,
namely, the Commander-in-Chief. What the War Member will demand the Viceroy
will certainly endorse. Consequently, next to the Viceroy the War Member will
be all-powerful. So long as the Viceroy and the C-in-C act in concert they will
be able to control all the departments. The other Executive Councillors will
not be able to object because they will be legally bound by their
responsibility to the Viceroy and they will be morally bound by their pledge of
whole-hearted participation in the war. The Department of External Affairs,
which is to be run by an Indian, will prove to be an eye-wash because foreign
affairs will be excluded from its jurisdiction. The Member in charge of this
Department will become like the Indian Defence Member of the Viceroy's Council
who is in charge of Army canteens.
I should like to ask those Congressmen who are today so keen about accepting
Lord Wavell's offer, with what face we shall go back to the Ministries which we
voluntarily gave up in 1939? I should also like to ask why the Congress
condemned Mr Aney and Dr Khare who accepted jobs on the Viceroy's Executive
Council, when the Congress is now going to do the same. The more I think of
this, the more I am convinced that incalculable harm will be done to the status
and prestige of the Congress and to India by accepting this offer. We shall be
putting back the clock by at least 25 years. All that we shall gain in return
for this wholesale sacrifice of principles will be a few jobs on the Executive
Council for some ambitious and power-mad Congressmen.
I shall now try to show that if the Congress accepts the offer, the British
Government and the Muslim League will profit at the expense of the Congress. It
is, I believe, the intention of Lord Wavell to give to the nominees of the
MuslimLeague all the seats in the Executive Council reserved for the Muslims if
the Muslim League makes that demand. Similarly, he will give to the Congress
all the seats reserved for caste Hindus if the Congress insists. The remaining
members will be appointed by Lord Wavell according to his own sweet will, and
it goes without saying that these members will be completely subservient to
him. It follows, therefore, that if the Viceroy can win over to his side either
the Congress bloc or the Muslim League bloc in the Executive Council, then he
will have a permanent majority to stand by him at all times. I take it that the
Congress bloc in the Executive Council cannot and will not consent to a pact
with the Viceroy, because if it does it will be ridiculed by the rank and file
of the Congress. But if the Viceroy throws a bait to the Muslims that the
British Government will help them to realise their dream of Pakistan, then
there is every likelihood of the Muslim League bloc making a pact with the
Viceroy. The moment it is done, the Viceroy will have a permanent minority in
the Executive Council to stand by him at all times and the Congress bloc will
thereby be reduced to a permanent majority. Nevertheless, the Congress bloc
will be constrained to maintain its pledge of whole-hearted participation in
Britain's war by carrying out the Viceroy's policy. Thus, if the offer is
accepted the British Government will profit by prosecuting the war with the
help of the Congress and in the name of the Indian people. The Muslim League
will also have succeeded in reducing the Congress to a permanent minority in
the Executive Council and by realising its dream of Pakistan with the help of
the British Government.
I have pointed out what we shall lose by accepting the offer. I shall now say
something as to what more we shall lose if the Congress cooperates with the
British Government for a period of time. Firstly, the independence movement as
well as the freedom mentality of the Indian people will suffer a serious
setback. By fighting Britain's imperialist war the Congress will forget its
revolutionary purpose and lose its spirit of militant nationalism. And, lastly,
by compromising with British imperialism the Congress will forfeit the sympathy
of freedom-loving men and women all over the world and will lose the support of
those friendly Powers like Soviet Russia who have full sympathy for our cause
and willing to lend us active help.
Friends, up to today I have been considering Lord Wavell's offer from the
purely political point of view but I have not considered its communal implications.
But I shall do so now. By accepting the offer, the Congress will incidentally,
though it may be indirectly, accept the principle of communalism in Politics.
It will acknowledge the MuslimLeague as the sole representative of the Indian
Muslims, and it will thereby betray all those Muslim organisations like the
Azad Muslim League, Jamiar-uI-Ulema, Shia Conference, Majlis-i-Ahrar, Praja
Party, Muslim Majlis, All-India Momin Party, etc., that have been following a
nationalist line at very great sacrifice. Moreover, the Congress will be forced
to admit that the word'Congress' is synonymous with the word 'caste Hindus' and
not even only with the word 'Hindu.'
I am making this statement on the supposition that the seats reserved by the
Viceroy for the caste Hindus will be given to the nominees of the Congress; and
those reserved for the Muslims will be given to the nominees of the Muslim
League, and that the member or members from Scheduled Caste will be appointed
by the Viceroy himself. Now I would like to put a question to Lord Wavell.
Amongst the Muslim members of the Executive Council, will he include
outstanding Muslims of the type of Maulana Abul Kalam Azad, who are not members
of the Muslim League, and since the vast majority of the Scheduled Caste votes
were given to the Congress in the last elections, will the Viceroy leave it to
the Congress to put up an Executive Councillor from amongst the Scheduled Caste
and not make the selection himself? If he does not do these, then it will be
crystal clear that the Viceroy's sinister intention is to reduce the Congress
into an organisation of the caste Hindus. Let somebody apply this acid test to
Lord Wavell. The result of this test will then speak for itself.
Whatever the other objections to the Viceroy's offer may be, this single
objection, namely, the communal implications of it, is enough to condemn that
offer and render it totally unacceptable to any nationalist party. The Congress
is a national institution representing Indians of all religious faiths and it
has fought hard and suffered much to maintain its national character. It will
commit veritable suicide if at this stage of its career the Congress were to
renounce its national character and accept a communal label. Likewise, it will
stultify itself once and for all if it gives up its role as a representative of
Indian Nationalism and if it accepts the position of one party among many
parties in India. I should like to repeat what I said the day before yesterday
that the Conservatives are keen on bringing about a compromise with the
Congress and Lord Wavell is anxious to get a decision before July 5. The
acceptance will help the Conservative Party considerably at the polls and
possibly ensure its return to power. If Lord Wavell succeeds, and the Conservatives
fail to return to office, he will then be able to prevent the Labour Cabinet
from revising Britain's India policy because the British Government will have
already been committed to the Wavell offer. It is likely that if we do not
accept his offernow and the Labour Party comes to power then that Party is
bound to take up the Indian issue when he shall be able to get better terms.
And, if the Conservative Party returns to office it will also be constrained to
make another offer, otherwise India will remain an international issue to the
great disadvantage of Britain. But, we will get another chance, and a better
chance, of bargaining after the war. I say this for the consideration of only
those who are really in favour of a policy of compromise with Britain, and who
are not prepared to fight for complete independence.
In conclusion, let me remind once again, as I said yesterday, that in this
fateful hour the destiny of India lies in your hands and the responsibility is
exclusively that of the Indian people and not the Congress Working Committee.
Therefore, carry on a raging and tearing campaign against this sinister offer
and see that this offer is consigned to the scrap-heap before July 5, 1945.
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