शुक्रवार, 6 जुलाई 2012

25 जून 1945 / ‘करो या मरो’- सन्देश




-:25 जून 1945:- 


‘करो या मरो’- सन्देश



      साथियों,
      आज मैं आपलोगों को उसी प्रकार से सम्बोधित कर रहा हूँ, जैसे कि एक क्रान्तिकारी अपने क्रान्तिकारी साथियों को करता है; मैं भारत में आपके बीच होता, तो इसी तरह कहता। वर्तमान में भारत एक राजनीतिक संकट के दौर से गुजर रहा है; अगर एक गलत कदम उठाया जाता है, तो आजादी की ओर हमारे बढ़ते कदम पिछड़ सकते हैं। मैं बता नहीं सकता कि आज मैं कितना चिन्तित हूँ; क्योंकि एक तरफ तो आजादी हमारे नजदीक है, और दूसरी तरफ एक गलत कदम इसे दूर कर सकता है।
      कुल-मिलाकर मुझे आपसे यह कहना है कि भारत में दुश्मन का प्रोपागण्डा इतना सफल हो गया है कि हमारे देश का प्रभावशाली वर्ग, जो सिर्फ तीन साल पहले तक यह यकीन करता था कि आजादी हमारी पहुँच में है और जो इसे हासिल करने के लिए ‘करो या मरो’ के लिए तैयार था, वह आज वायसराय के एक्जीक्यूटिव काउन्सिल के भारतीयकरण के बारे में सोचने लगा है। इस नाजुक घड़ी में, हमलोग जो कि देश से बाहर हैं, दुनिया के हालात पर देश के अन्दर रहने वालों के मुकाबले बहुत-बहुत बेहतर तरीके से नजर रख सकते हैं। इसलिए यह हमारा फर्ज बनता है कि अपनी सोच आपको बतायें और आपको सही सलाह दें।
      रंगून से अपने मुख्यालय को हटाने के बाद हम बर्मा के अन्दर किसी भी दूसरी जगह में जा सकते थे; जैसा कि स्वतंत्र बर्मा की सरकार ने किया, क्योंकि हमारे सैनिक बर्मा के अन्दर युद्ध कर ही रहे थे। मगर हमने सोचा कि हमारा दुश्मन यूरोप तथा बर्मा में मिली इस सफलता का तुरन्त फायदा उठाने की कोशिश करेगा और हमपर नये सिरे से राजनीतिक एवं सैन्य हमले करेगा, सो, हमें इनके लिए तैयार रहना है और हमें एक ऐसे स्थान पर रहना है, जहाँ से जरुरत पड़ने पर भारत को सम्बोधित कर सकें। यही वह मुख्य कारण है, जिसके लिए हम आज यहाँ स्योनान में हैं।
      आज भारत जिस संकट का सामना कर रहा है, वह इसलिए खड़ा हुआ है कि हमारे देश के कुछ प्रभावशाली वर्ग, जो सिर्फ तीन साल पहले ‘आजादी या मौत’ के नारे लगा रहे थे, आज लॉर्ड वावेल की शर्तों पर ब्रिटिश सरकार से समझौता करने के लिए तैयार हो गये हैं। दो कारणों से यह यह प्रवृत्ति गलत एवं अन्यायपूर्ण है- पहला, आजादी के मामले में कोई समझौता नहीं हो सकता और दूसरा, हमारे देशवासी जैसा समझते हैं, परिस्थितियाँ वैसी नहीं हैं और अगर हम ब्रिटिश साम्राज्य के प्रति अपना प्रतिरोध जारी रखते हैं, तो इस युद्ध की समाप्ति तक हम आजादी पा लेंगे।
      मुझे सुनने वालों में किसी को अगर इस बारे में सन्देह है कि मैं दुनिया की ताजातरीन घटानाओं के सम्पर्क में हूँ या नहीं, तो वे खुद ही एक सामान्य तथ्य के आधार पर इसकी जाँच कर सकते हैं। पिछले हफ्ते के मेरे सम्बोधनों में आपने ध्यान दिया होगा कि मैं भारत में घट रही रोज की घटनाओं की गहराई से खबर रखता हूँ। अगर मैं भारत की घटनाओं की खबर रख सकता हूँ. तो मैं विश्व में घट रही घटनाओं की भी खबर रख सकता हूँ। इसके विपरीत, जो लोग भारत के अन्दर हैं, जो यह नहीं देख सकते कि ब्रिटिश-अमेरीकियों के नियंत्रण से बाहर वाले क्षेत्रों में क्या हो रहा है, और जो दुश्मन के कुटील प्रोपागण्डा के शिकार हैं, वे विश्व-परिस्थिति के बारे में एक सटीक राय नहीं बना सकते। आज सारा विश्व संक्रमण के दौर से गुजर रहा है और भारत की नियति विश्व-घटनाक्रमों से अछूती नहीं रह सकती।
      सवाल उठता है कि मैं इतना आशावादी कैसे हूँ, जबकि मेरे कुछ प्रमुख साथीगण हार मान चुके हैं? इसके पीछे दो प्रमुख कारण हैं- हम ब्रिटिश एवं उसकी सहयोगी शक्तियों के खिलाफ सशस्त्र संघर्ष चला रहे हैं और हम बर्मा में हाल में मिली असफलता के बावजूद पूर्वी एशिया के मामले में निराशावादी नहीं हैं
      दूसरी बात, भारत आज एक अन्तर्राष्ट्र्रीय मुद्दा बन चुका है, और अगर इस मुद्दे को ब्रिटिश साम्राज्य का एक घरेलू मुद्दा नहीं बनने दिया जाय, तो विश्व-जनमत की अदालत के सामने यह मुद्दा जरुर उठेगा। क्या आप अपनी आँखों से खुद नहीं देख सकते और अपने कानों से खुद नहीं सुन सकते कि कैसे सीरिया और लेबनान ने विश्व-परिस्थितियों को अपने पक्ष में मोड़ते हुए तथाकथित संयुक्त-राष्ट्रों के बीच दरार पैदा कर दिया है? हम सीरियाई या लेबनानी नेताओं से कोई कम बुद्धिमान या कम दूरदर्शी नहीं हैं। लेकिन अगर हमें भारत के मामले को विश्व-जनमत की अदालत में लाना है, तो हमें दो काम करने होंगे-
      पहला काम, ब्रिटिश साम्राज्यवाद के साथ किसी भी समझौते से हमें इन्कार करना होगा; और दूसरा, हमें भारत की आजादी सुनिश्चित करने के लिए हथियार उठाने होंगे। अगर घर  में हमारे देशवासी हथियार न उठा सकें, और ब्रिटिश युद्ध-प्रचेष्टाओं के खिलाफ वे नगरिक-अवज्ञा आन्दोलन भी न चला सकें, तो कम-से-कम वे ब्रिटिश-साम्राज्यवाद के खिलाफ नैतिक-प्रतिरोध जारी रखें और कोई भी समझौता करने से इन्कार कर दें। हम भारत की आजादी को सुनिश्चित करने के लिए यहाँ सशस्त्र संघर्ष जारी रखेंगे, और जब तक हम ऐसा करते रहेंगे, दुनिया की कोई ताकत भारत को अन्तर्राष्ट्रीय मुद्दा बनने से नहीं रोक सकती, बशर्ते कि आप वहाँ ब्रिटिश सरकार के साथ समझौता करके हमें नीचा न दिखा दें।
      मैं जानता हूँ कि घर में कुछ नेता मुझसे बुरी तरह से खफा हैं, क्योंकि मैं ब्रिटिश सरकार के साथ उनके समझौता करने की योजना का विरोध कर रहा हूँ। वे इसलिए भी मुझसे नाराज हैं कि मैं इस बात को सामने ला रहा हूँ कि काँग्रेस और ऑल इण्डिया काँग्रेस कमिटी के पीठ पीछे काँग्रेस वर्किंग कमिटी को ऐसा दुर्भाग्यपूर्ण फैसला लेने का संवैधानिक हक नहीं है। और वे इसलिए भी मुझसे नाराज हैं कि मैं बता रहा हूँ कि काँग्रेस वर्किंग कमिटी काँग्रेस तथा देश के लेफ्ट विंग का प्रतिनिधित्व नहीं करती। ये क्रोधित नेता मुझे गालियाँ दे रहे हैं कि मैं निप्पोनीज की मदद ले रहा हूँ।
      मैं निप्पोन की मदद लेने में शर्म महसूस नहीं कर रहा हूँ। निप्पोन ने भारत की सम्पूर्ण आजादी को पूर्ण समर्थन दिया है और आजाद हिन्द यानि स्वतंत्र भारत की वैकल्पिक सरकार को आधिकारिक मान्यता दी है। लेकिन जो अभी ब्रिटिश सरकार का साथ देना चाहते हैं और ब्रिटेन का साम्राज्यवादी युद्ध लड़ना चाहते हैं, वे भारत में ब्रिटेन के वायसराय के प्रति उत्तरदायी अधीनस्थों की भूमिका स्वीकार करने के लिए राजी हो गये हैं। हाँ, अगर उन्होंने इस आधार पर ब्रिटिश सरकार के साथ सहयोग किया होता कि ब्रिटेन स्वतंत्र भारत की सरकार को आधिकारिक मान्यता प्रदान करेगा, तो यह एक अलग बात होती।
      इसके अलावे, निप्पोन ने हमें हथियार दिये हैं, जिससे कि ऊपर से नीचे तक विशुद्ध भारतीय एक सेना का गठन हो पाया है। इस सेना, यानि आजाद हिन्द फौज, को भारतीय भाषाओं का इस्तेमाल करते हुए भारतीय प्रशिक्षकों द्वारा प्रशिक्षित किया गया है। यह सेना भारत के राष्ट्रीय झण्डे को लेकर चलती है और भारत के राष्ट्रीय नारों का प्रयोग करती है। इस सेना के अपने भारतीय अफसर हैं और पूरी तरह भारतीयों द्वारा संचालित अपने ऑफिसर ट्रेनिंग स्कूल हैं। और युद्ध के मैदान में यह सेना अपने भारतीय कमाण्डरों के अधीन रहकर लड़ती है, जिनमें से कुछ अब जेनरल का ओहदा पा चुके हैं। अगर कोई कठपुतली सेना की बात कहता है, तो वह ब्रिटिश इण्डियन आर्मी है, जिसे कठपुतली सेना कहा जाना चाहिए, क्योंकि यह ब्रिटिश अफसरों के अधीन रहकर ब्रिटेन का साम्राज्यवादी युद्ध लड़ रही है।
      क्या मैं इस पर यकीन कर लूँ कि पच्चीस लाख की एक सेना में, जिसमें बहुत-से भारतीयों को ब्रिटिश सेना के सर्वोच्च सम्मान- विक्टोरिया क्रॉस- पाने के योग्य समझा गया हो, उसमें एक भी भारतीय जेनरल का ओहदा पाने के योग्य नहीं है?
      साथियों, मैंने अभी-अभी कहा कि मैं निप्पोन की मदद लेकर शर्मिन्दा नहीं हूँ। मैं इससे भी आगे जाकर कहना चाहूँगा कि अगर एक समय का सर्वशक्तिमान ब्रिटिश साम्राज्य भीख की कटोरी लेकर दुनिया भर में घूम सकता है और युनाइटेड स्टेट्स ऑव अमेरीका की मदद पाने के लिए घुटने टेक सकता है, तो क्या वजह है कि हम- गुलाम तथा निशस्त्र राष्ट्र- अपने मित्रों से मदद नहीं ले सकते! आज हम निप्पोन की मदद ले रहे हैं, कल को अगर सम्भव हुआ और भारत की भलाई के लिए आवश्यकता पड़ी, तो हम किसी और शक्ति से भी मदद लेने में नहीं हिचकेंगे।
      बिना किसी प्रकार की विदेशी मदद के अगर हमें आजादी मिल जाती है, तो मुझसे ज्यादा प्रसन्न और कोई नहीं होगा। मगर आधुनिक इतिहास में मुझे एक भी ऐसा उदाहरण अब तक नहीं मिला है, जहाँ किसी गुलाम देश ने बिना किसी प्रकार की बाहरी मदद के आजादी हासिल की हो। और जहाँ तक गुलाम भारत की बात है, ब्रिटिश राजनीतिक पार्टियों और ब्रिटिश नेताओं के साथ हाथ मिलाने से लाख दर्जा बेहतर है कि हम ब्रिटिश साम्राज्य के शत्रुओं के साथ हाथ मिलायें। हमारी सारी समस्या यही है कि हम अपने दुश्मनों से पर्याप्त नफरत नहीं करते और हमारे नेता ‘भारत के दुश्मनों’ से नफरत करना हमें नहीं सिखाते- हाँ, जिन्हें वे ‘दूसरे देशों के दुश्मन’ मानते हैं, उनसे नफरत करना वे जरूर सिखाते हैं। क्या यह हास्यास्पद नहीं है कि हमारे कुछ नेतागण विदेशों में जाकर फासीवाद के खिलाफ लड़ने की बात करते हैं और घर में साम्राज्यवाद के साथ हाथ मिलाते हैं?
      साथियों, अगर मैं यहाँ आरामकुर्सी पर बैठा एक राजनीतिज्ञ होता, तो मैं अपना मुँह बिलकुल नहीं खोलता और आपसे एक शब्द भी नहीं कहता। मगर मैं और मेरे साथी यहाँ एक भयंकर लड़ाई लड़ रहे हैं। सीमा पर हमारे साथी मौत के साथ खेल रहे हैं। जो सीमा पर नहीं हैं, उन्हें भी अपने अस्तित्व की रक्षा के लिए प्रतिपल खतरे का सामना करना पड़ रहा है। जब हम बर्मा में थे, बमबारी और मशीनगनों की बौछार हमारी रोज की मनोरंजन हुआ करती थी। दुश्मन की निष्ठुर बमबारी और मशीनगनों की बौछार में मैंने अपने बहुत-से साथियों को मरते, अपंग और घायल होते देखा है। रंगून के आजाद हिन्द फौज अस्पताल में मैंने सारे फर्श को बुरी तरह से हताहत असहाय मरीजों से पटा हुआ देखा है।
आज अगर मैं और मेरे कुछ साथी अगर जिन्दा हैं, तो यह ईश्वर की कृपा है। चूँकि हम मौत का सामना करते हुए जी रहे हैं, काम कर रहे हैं और लड़ रहे हैं, इसलिए हमें हक है आपसे बात करने का और आपको सलाह देने का! आपमें से ज्यादातर नहीं जानते कि बमबारी क्या होती है। आपमें से ज्यादातर को नहीं पता कि नीचे उड़ते हुए बमवर्षक या लड़ाकू विमान से की जानेवाली मशीनगनों की बौछार कैसी होती है। आपमें से ज्यादातर को अनुभव नहीं होगा कि बन्दूकों की गोलियाँ आपके दाहिने-बाँयें से कैसे सनसनाती हुई निकलती हैं। जो कोई भी इन अनुभवों से गुजरा होगा और गुजरकर भी जिसने अपना मनोबल ऊँचा बनाये रखा होगा, वह लॉर्ड वॉवेल के प्रस्ताव की ओर झाँकने भी नहीं जायेगा!
साथियों, लॉर्ड वॉवेल के प्रस्ताव का क्या करना है- यह हमें तय करना है। सबसे पहले तो- हालाँकि आपके पास समय कम है, फिर भी- हर वह सम्भव उपाय अपनाना है, जिससे कि काँग्रेस वर्किंग कमिटी इस प्रस्ताव को स्वीकार ही न कर सके। दूसरी बात, अगर आप इसमें असफल रह जाते हैं, तो आपको ऐसी स्थिति पैदा कर देनी है कि काँग्रेस-प्रतिनिधिगण वायसराय की एक्जीक्यूटिव काउन्सिल से इस्तीफा देने के लिए बाध्य हो जायें। यह कोई मुश्किल नहीं होगा। आपको सभी राजनीतिक कैदियों की रिहाई की माँग पर अड़ जाना है, बस इसी से वायसराय तथा एक्जीक्यूटिव काउन्सिल के काँग्रेस सदस्यों के बीच अनबन की शुरुआत हो जायेगी।
इसमें कोई सन्देह नहीं है कि नयी एक्जीक्यूटिव काउन्सिल बनने के बाद वायसराय भारत की मानव शक्ति, धन तथा संसाधनों को सुदूर-पूर्व में ब्रिटिश के भावी युद्ध में झोंकना शुरु कर देंगे। इससे कई ऐसे मुद्दे पैदा होंगे, जिनमें भारत के हित ब्रिटेन के हितों से टकरा जायेंगे। ऐसे में अगर आप प्रचार एवं आन्दोलन जारी रखते हैं, एक्जीक्यूटिव काउन्सिल के काँग्रेस-सदस्यों  को ब्रिटिश हितों के खिलाफ जाते हुए भारत के हित में खड़े होने के लिए बाध्य होना पड़ेगा, इससे वायसराय के साथ उनकी तकरार निश्चित रुप से होगी। इसके बाद आपको सुदूर-पूर्व में भारतीय सैनिकों को बलि का बकरा बनाये जाने के खिलाफ आन्दोलन छेड़ना है।
अगर आप इसमें असफल रह जाते हैं, तो आपको दुश्मन की यातायात एवं संचार व्यवस्था को अस्त-व्यस्त करने के लिए तोड़-फोड़ की गतिविधियाँ चलानी हैं। जैसा कि आप जानते हैं कि पिछले पाँच वर्षों में ब्रिटिश उन देशों में भूमिगत गतिविधियों को चलाने तथा उन्हें संगठित करने के लिए जरूरी दिशा-निर्देश जारी कर रहे हैं, जो देश उसकी नियंत्रण या प्रभाव से बाहर हो गये हैं। अगर आप इन इन दिशा-निर्देशों उपयोग करें और भारत में ब्रिटेन के ही खिलाफ इन्हें लागू करें, तो आपको अच्छे परिणाम प्राप्त होंगे।
अन्त में एक महत्वपूर्ण बात और, आपको भरतीय सेनाओं के अन्दर पैठ बनानी है और उसे अन्दर से ही बगावत के लिए तैयार करना है। आज की भरतीय सेना 1939 की सेना नहीं है। ब्रिटिश रपटों के अनुसार, भरतीय सेना का संख्याबल पच्चीस लाख है। इस सेना में ऐसे बहुत-से लोग हैं, दिमाग से राजनीति समझते हैं और दिल से राष्ट्रवादी हैं। इस सेना को जब भंग किया जाने लगेगा, तब बगावत का सही मौका होगा, बशर्ते कि तबतक भारत आजाद न हुआ हो। इस विश्वयुद्ध को धन्यवाद कि इसकी बदौलत आज पच्चीस लाख भारतीय शस्त्र चलाना जानते हैं। जब इन्हें सेना से निकाला जायेगा, तब ये शस्त्रागारों पर धावा बोल सकते हैं और हथियार उठाकर अँग्रेज शासकों से युद्ध कर सकते हैं। 1930 में चटगाँव शस्त्रागार पर बोला गया धावा एक शानदार उदाहरण है कि कैसे दुश्मनों के हथियार को हासिल करके उन्हीं के खिलाफ इनका इस्तेमाल किया जा सकता है।
"साथियों, आज के लिए मैं इतना ही कहना चाहूँगा, लेकिन समाप्त करने से पहले मैं एकबार फिर आपको याद दिलाना चाहूँगा कि क्रान्तिकारी वह होता है, जो यह विश्वास रखता है कि उसका उद्देश्य न्यायपूर्ण है, और एक-न-एक दिन वह अपने उद्देश्य को हासिल करेगा ही। जो असफलता या हार से निराश हो जाये, वह क्रान्तिकारी नहीं हो सकता। एक क्रान्तिकारी का आदर्श वाक्य होता है- 'अच्छे से अच्छे की आशा रखो, मगर बुरे से बुरे के लिए तैयार रहो।
मुझे यकीन है कि अगर हम अपना संघर्ष जारी रखते हैं और अन्तर्राष्ट्रीय मंच पर अपने पत्ते सही खेलते हैं, तो इस युद्ध की समाप्ति तक हम अपनी आजादी को हासिल कर लेंगे। लेकिन इसका मतलब यह नहीं है कि अगर हम असफल रह जाते हैं, तो हम हिम्मत हार बैठें या निराश हो जायें। अगर बुरे-से-बुरा होता है और युद्ध के बाद भारत एक स्वतंत्र राष्ट्र के रुप में नहीं उभरता है, तब हमारी अगली योजना होगी- भारत के अन्दर युद्धोत्तर-क्रान्ति। और अगर हम इसमें भी असफल रह जायें, तो हमें आजादी पाने का मौका देने के लिए एक तीसरा विश्वयुद्ध होगा।
मुझे पूरा यकीन है कि अगर वर्तमान युद्ध के दौरान दुनिया के सभी गुलाम देश आजाद नहीं होते हैं, तो दस वर्षों के अन्दर- अगर इससे पहले नहीं तो, तीसरे विश्वयुद्ध की शुरुआत हो जायेगी। भारत की आजादी तय है। जो कारक तय नहीं है, वह है- समय। बहुत बुरी स्थिति होने पर भी चन्द वर्ष और लग सकते हैं। फिर हम क्यों इतनी आसानी से निरुत्साहित हो जायें और समझौता करने के लिए वायसराय के घर की ओर दौड़ पड़ें? एक क्रान्तिकारी के रुप में आपका फर्ज बनता है कि आजादी के झण्डे को तब तक उठाये रखें, जब तक कि दिल्ली में वायसराय के घर के ऊपर इसे शान से फहरा नहीं दिया जाता।
जय हिन्द।             

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