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-:27 जून 1945:-
"मैं एक क्रान्तिकारी हूँ"
सिंगापुर से
प्रसारण
"साथियों, पिछले कुछ
दिनों से मैं आपसब से उसी तरह तरह से बातें करता आ रहा हूँ, जैसे कि भारत में एक
क्रान्तिकारी अपने क्रान्तिकारी साथियों से करता है- अगर मैं अपने देश में होता,
तो इसी तरह से आपको सम्बोधित कर रहा होता। यहाँ क्रान्तिकारी से मेरा मतलब है- वह व्यक्ति, जो अपने देश की
सम्पूर्ण आजादी चाहता हो, और आजादी के मामले में कोई भी समझौता करने के लिए राजी न
हो! साथ ही, एक क्रान्तिकारी को विश्वास होता है कि जिस उद्देश्य के लिए वह लड़ रहा
है, वह जायज है और इसलिए देर-सबेर इसमें सफलता मिलनी ही है! एक क्रान्तिकारी किसी
भी पराजय या विफलता से कभी हताश या दुःखी नहीं होता, क्योंकि उसका आदर्श होता है-
'अच्छे की उम्मीद रखो, मगर बुरे के लिए तैयार रहो।' भारत की आजादी के लड़नेवाले
क्रान्तिकारियों की हैसियत से अन्तिम जीत पर हमारा विश्वास अटल है- जैसे कि हर
परिस्थिति में संघर्ष जारी रखने का हमारा संकल्प दृढ़ है। यही वह अजेय भावना है,
जिसके बल पर हम अँग्रेजों से लड़ रहे हैं और भविष्य में भी लड़ते रहेंगे।
क्रान्तिकारी होने के नाते हम भारत की आजादी को तय मानते हैं। दुनिया में ऐसी कोई
ताकत नहीं है, जो हमारे तथा आजादी के हमारे लक्ष्य के बीच खड़ी हो सके। जो कारक
निश्चित नहीं है, वह है- समय।
"इस प्रश्न पर कि भारत को कब आजादी मिलेगी, मैं यह
कहना चाहूँगा कि यह दो बातों पर निर्भर करती है- पहली बात, हम किस परिमाण में कोशिश
कर रहे हैं और किस हद तक बलिदान देने के लिए तैयार हैं। दूसरी बात, युद्ध की
वर्तमान स्थितियों का अपने फायदे के लिए उपयोग करने के लिए हम कहाँ तक तैयार हैं।
और इस दृष्टि से हमें कम-से-कम तीन काम करने पड़ेंगे। पहला काम- भारत के अन्दर या
बाहर, भारत को आजाद कराने के लिए हमें हथियार उठाने होंगे। दूसरा काम- भारत के
अन्दर प्रतिरोध- कम-से-कम नैतिक प्रतिरोध- जारी रखना है, और किसी कीमत पर ब्रिटेन
के साथ कोई समझौता नहीं होने देना है। तीसरा काम- हमें भारत को एक अन्तर्राष्ट्रीय
मुद्दा बनाना है और भारत के मामले विश्व-जनमत की अदालत में लेकर जाना है।
"अपने पिछले
सम्बोधन में मैं बता चुका हूँ कि पूर्वी एशिया में हम भारत को आजाद कराने के लिए
सशस्त्र संघर्ष जारी रखेंगे। जब तक हम ऐसा करते रहेंगे, भारत एक अन्तर्राष्ट्रीय
मुद्दा बना रहेगा- बशर्ते कि घर के लोग ब्रिटिश साम्राज्यवाद के साथ समझौता करके
हमें नीचा देखने के लिए बाध्य न करे! समझौता कर लेने से भारत का मुद्दा ब्रिटिश
साम्राज्यवाद का एक घरेलू मामला बन जायेगा। सैन्य सफलताओं तथा दुष्प्रचार के बल पर
अँग्रेजों ने समझौते के अनुकूल हवा बना दी है। हमारे देशवासियों के कुछ खास वर्गों
के मन में अँग्रेजों ने यह यह बात बैठा दी है कि ऐंग्लो-अमेरीकन शक्तियाँ इस युद्ध
को जीतने जा रही हैं, युद्ध के दौरान भारत की आजादी की कोई आशा नहीं बची है और
इसलिए, भारतीयों को उनके द्वारा पेश किये गये प्रस्तावों को स्वीकार कर लेना चाहिए।
"जैसे ही अँग्रेजों ने यह महसूस किया कि भारत में उनका
दुष्प्रचार रंग ला रहा है, उन्होंने लोहा गर्म देखकर हथौड़ा चला दिया और एक
प्रस्ताव को आगे बढ़ा दिया, जो सर स्टाफोर्ड क्रिप्स के प्रस्ताव का सारांश भर है-
मामूली संशोधनों के साथ। सामान्य परिस्थिति में एक भी सच्चे काँग्रेसी ने लॉर्ड
वावेल के इस प्रस्ताव पर नजर तक न डाली होती, या चिमटे से भी इसे नहीं छुआ होता। लेकिन
पराजित मानसिकता वाले हमारे कुछ देशवसियों ने यह सोचकर कि अब सबकुछ खत्म हो गया
है, इस प्रस्ताव को लपक लिया- जैसे कि डूबता आदमी तिनके को पकड़ता है।
"चूँकि हमारे दुश्मनों ने हमारी आजादी के रास्ते पर
अचानक एक बाधा खड़ी कर दी है, अतः हम क्रान्तिकारियों का फर्ज बनता है कि हम पूरा
जोर लगाकर इस बाधा को दूर करें, ताकि भारत के अन्दर व बाहर कार्यरत शक्तियाँ हमें
हमारे तय लक्ष्य की ओर आगे बढ़ा सकें। हालाँकि हमारी कोशिशों के लिए समय कम बचा है,
फिर भी, मुझे आशा है कि हम सफल होंगे- बशर्ते कि हम समय रहते अपने देशवासियों की
आँखें खोल सकें- ताकि वे लॉर्ड वावेल के प्रस्ताव को स्वीकार करके और जापान के
खिलाफ युद्ध में पूरी ताकत झोंकने की अनुमति ब्रिटेन को देकर हमें खतरे में न डाल
दें। अगर लॉर्ड वावेल का प्रस्ताव स्वीकार कर लिया जाता है, तो एक तरफ तो यह हमें
आजादी के रास्ते से भटका देगा; और दूसरी तरफ, इस प्रस्ताव की स्वीकृति ऐसी स्थिति
पैदा कर देगी, जिसमें काँग्रेस भारतीय आम जनता की प्रतिनिधि नहीं रह जायेगी- इसकी
हैसियत देश में मौजूद अन्यान्य बहुत-सी पार्टियों की तरह एक पार्टी की रह जायेगी
और साथ-ही-साथ, भारत के सभी धर्मों एवं नस्लों का प्रतिनिधित्व करने वाला इसका जो
राष्ट्रीय चरित्र है, वह खत्म हो जायेगा।
"मुझे यह देखकर आश्चर्य और कष्ट होता है कि आज ऐसे भी
कुछ भारतीय हैं, जो यह समझ नहीं पा रहे हैं कि वायसराय तथा उसके आकाओं ने भारतीय
जनता के लिए एक फन्दा तैयार कर रखा है। ये सज्जन लोग तो लॉर्ड वावेल की नेकनीयती
पर विश्वास तथा उनकी ईमानदारी की प्रशंसा तक
करने लगे हैं! मगर मैं देख रहा हूँ कि वायसराय ने अपने चरित्र, अपने इरादों और
अपनी नीयत को खुद ही उजागर कर दिया है। 25 जून को शिमला सम्मेलन शुरु करते हुए
लॉर्ड वावेल ने भारतीय नेताओं को प्रवचन देते हुए कहा- 'जब तक संविधान में बदलाव
पर सहमति नहीं बन जाती, आपको वर्तमान में मेरे नेतृत्व को स्वीकार करना ही होगा। मैं
भारत में सुशासन एवं शान्ति-व्यवस्था के लिए हिज-मैजेस्टि की सरकार के प्रति
उत्तरदायी हूँ।' यही नहीं, इसके पहले लॉर्ड वावेल ने कहा था- 'अपने इतिहास की इस
महत्वपूर्ण घड़ी में मैंने देश के सभी हिस्सों से आपलोगों को बुलाया है, ताकि मैं भारत
को समृद्धि, राजनीतिक स्वतंत्रता एवं महानता के रास्ते पर आगे बढ़ाने के लिए आपको
सलाह दे सकूँ, आपकी मदद कर सकूँ।'
"इस प्रकार के संरक्षण
को बर्दाश्त करना स्वाभिमानी भारत के लिए असम्भव है। जहाँ तक मेरी जानकारी है, किसी ने भी लॉर्ड वावेल को भारत
का अभिभावक नियुक्त नहीं किया है। ना ही किसी ने भारत की नियति को उनके हाथो में
सौंपा है। मैं यह जानना चाहूँगा कि भारत की नियति के निर्धारक के रूप मे लॉर्ड
वावेल की इस भूमिका को काँग्रेस स्वीकार करती है या नहीं! आज जब सारी दुनिया मे
आक्रमण पर चर्चा हो रही है, खासकर ऐंग्लो-अमेरीकन शक्तियों पर आरोप लग रहा है कि
वे दुनिया भर मे आक्रमण कर रही हैं, तब हमें यह नही भूलना चाहिये कि भारत मे
ब्रिटिश राज कि स्थापना ही आक्रमण, क्रूर ताकत, विध्वंस और लूट की नींव पर रखी गयी
थी। हम यह भी ना भूलें कि अँग्रेजों को भारत में होने का कोइ हक नहीं है, और यही
वह समय है, जब उन्हें खुद को भारत का रक्षक या शुभचिन्तक समझने के बजाय भारत में
अपनी करतूतों पर थोड़ा अफसोस जाहिर करना चाहिए। शिमला सम्मेलन में लॉर्ड वावेल के
पाखण्ड को सिर्फ निम्नतम स्तर के अहंकार के रुप में ही व्यक्त किया जा सकता है।
"एक और रोचक तथ्य लॉर्ड वावेल की असली नीयत को बयान
करता है, वह है- सम्मेलन में सीटों की व्यवस्था। उनके दाहिनी वाली सीट, जो कि
सम्मेलन में शामिल सबसे महत्वपूर्ण पार्टी के प्रतिनिधि को दी जानी चाहिये थी,
काँग्रेस-अध्यक्ष मौलाना अबुल कलाम आजाद को नहीं दी गयी। कल नयी दिल्ली रेडियो पर
इस बात की उद्घोषणा की गयी थी; लेकिन यह नहीं बताया गया था कि काँग्रेस की तरफ से
विरोध दर्ज कराया गया है या नही। अगर अब तक काँग्रेस की तरफ से कोइ विरोध नहीं
जताया गया है, तो यह अनुमान लगाया जा सकता है कि काँग्रेस-प्रतिनिधिगण शिमला
सम्मेलन में शामिल होने के लिये कुछ ज्यादा ही उत्सुक हैं और इसके लिये वे किसी के
अपमान या जिल्लत को भूल जाने को तैयार हैं।
"मैं चकित हूँ कि इस सम्बन्ध में एक और रोचक तथ्य की
ओर आपका ध्यान गया है या नही। जिस वक्त लॉर्ड वावेल ब्रिटिश सरकार के नये प्रस्ताव
की घोषणा कर रहे थे, उसी वक्त लन्दन में इण्डिया ऑफिस यह घोषणा कर रहा था कि
इंग्लैण्ड में इण्डियन सिविल सर्विस के लिये भर्ती-प्रक्रिया फिर से शुरु की जा
रही है। यह सबसे बड़ा सबूत है– अगर और सबूत की जरूरत है तो- कि ब्रिटेन का भारत पर
अपनी पकड़ ढीली करने का कोई इरादा नही है। इस पर 25 जून को लन्दन मे एक बयान जारी
करते हुए ग्रेट ब्रिटेन के लेबर पार्टी के चेयरमैन प्रोफेसर हैरोल्ड लास्की ने
टिप्पणी की है- 'इससे भारतीय राष्ट्रवादियों तथा भारत राष्ट्र को समझ लेना चाहिए
कि अँग्रेज भारत को छोड़ने से पहले पर्याप्त समय हाथ में रखना चाहते हैं, जिससे कि इण्डिया
ऑफिस को होने वाले भावी घाटे को पूरा करने के लिये क्षतिपूर्ति के रुप में से भारत
से ढेर सारा रुपया वसूला जा सके- आने वाले कई वर्षों तक भारत को कंगाल बनाते हुए।'
"मैं नहीं जानता
कि मेरे श्रोताओं में से किसी को इसमें षड्यंत्र की बू आ रही है या नहीं कि लॉर्ड
वावेल ने शिमला सम्मेलन को बन्द दरवाजों के पीछे होनेवाले एक गुप्त सम्मेलन में
क्यों बदल दिया है। मुझे बताया गया है कि सम्मेलन में शामिल होने वाले सभी सज्जनों
को एक प्रकार की गोपनीयता की शपथ दिलायी गयी है। ऐसा क्यों है? किसी देश की नियति
को तय करने के लिए बन्द कमरे में होने वाले ऐसे किसी सम्मेलन के बारे में मैंने तो
कभी नहीं सुना। इसके पीछे मुझे जो कारण नजर आ रहा है, वह यह है कि लॉर्ड वावेल
भारत की आम जनता की राय से डरते हैं। बन्द दरवाजों के पीछे वे भारतीय नेताओं को
छलने की कोशिश कर रहे हैं और उन्हें अच्छी तरह से पता है कि अगर कार्यवाही
सार्वजनिक की गयी, तो ऐन मौके पर भारत की जनता का मत सामने आ जायेगा और भारतीय
नेताओं को फँसाने की कोशिशें बेकार हो जायेंगी।
"शिमला सम्मेलन पर बातें करते हुए मैं महात्मा गाँधीजी
को अपनी सादर बधाई जरूर देना चाहूँगा कि उन्होंने शिमला सम्मेलन में भाग नहीं लेने
का फैसला किया है। मैं समझ सकता हूँ कि महात्मा गाँधीजी को 1931 में लन्दन में हुए
गोलमेज सम्मेलन में ब्रिटिश सरकार द्वारा धमकाया जाना याद आ गया होगा। बाद में
वहाँ ऐसी चालें चली गयीं थीं कि एकमात्र काँग्रेस प्रतिनिधि के रुप में महात्मा
गाँधीजी की हैसियत को घटाकर सम्मेलन में शामिल अन्यान्य पार्टियों के प्रतिनिधियों
के बराबर ले आयी गयी थी। वर्तमान सन्दर्भ में, शिमला सम्मेलन से दूरी बनाये रखकर
महात्मा गाँधीजी ने खुद को पार्टी स्तर से ऊँचा उठा रखा है। उनकी इस अनुपस्थिति ने
सिर्फ उनकी व्यक्तिगत प्रतिष्ठा को ही नहीं बढ़ाया है, बल्कि अन्तिम रुप से यह भारत
के लिए फायदेमन्द भी साबित हो सकती है।
"साथियों! अब हमें यह तय करना है कि लॉर्ड वावेल के प्रस्ताव
का क्या किया जाय। सबसे पहले तो- हमारे पास समय कम होने के बावजूद- हमें हर सम्भव
कोशिश करनी है कि काँग्रेस कार्य-समिति इस प्रस्ताव को स्वीकार न करे। हमें सारे
देश में- इस कोने से उस कोने तक- लॉर्ड वावेल के प्रस्ताव के खिलाफ एक उग्र एवं तीव्र
आन्दोलन चलाना है। आपको यह भी देखना होगा कि एक संगठित विपक्ष खड़ा हो। मैं इस दूरी
से ही देख सकता हूँ कि देश में लॉर्ड वावेल के प्रस्ताव के विरोधियों की संख्या
खासी बड़ी है। मगर प्रस्ताव की स्वीकृति के खिलाफ ये विरोधी ताकतें एकजुट होकर
अभियान चलाती नहीं दीख रहीं। अगर आप काँग्रेस कार्य-समिति को नयी बनने वाली
कार्यकारी परिषद के कार्यक्रम प्रस्तुत करने की चुनौती देते हैं, तो इससे प्रस्ताव
को खारिज करने के अभियान को पर्याप्त मदद मिलेगी। इस कार्यक्रम को देखने के बाद देश
को समझ में आ जायेगा कि नयी कार्यकारी परिषद का कार्य क्या होगा- सुदूर-पूर्व में
ब्रिटेन के साम्राज्यवादी युद्ध में खपाने के लिए 5,00,000 भारतीय जिन्दगियों को बलि
का बकरा बनाकर भेजना; या लॉर्ड वावेल के कथनानुसार भारत को समृद्धि, राजनीतिक
स्वतंत्रता एवं महानता के रास्ते पर आगे बढ़ाने में सहायता करना!
"अगर आप प्रस्ताव को स्वीकृत होने से नहीं रोक सकें,
तो बाद में आपको ऐसी स्थिति पैदा कर देनी है कि वायसराय की परिषद से
काँग्रेस-प्रतिनिधियों को इस्तीफा देने के लिए मजबूर होना पड़े। यह मुश्किल नहीं
होगा। आपको सभी राजनीतिक बन्दियों की रिहाई की माँग करनी है, बस इसी से वायसराय
तथा उनकी कार्यकारी परिषद के काँग्रेस-सदस्यों के बीच संकट की शुरुआत हो जायेगी;
जैसा कि 1938 में हुआ था, जब बिहार एवं संयुक्त प्रान्त के मंत्रियों ने सभी
राजनीतिक बन्दियों की रिहाई की माँग की थी और गवर्नर के साथ उनका टकराव शुरु हो
गया था। इसके अलावे, इसमें कोई सन्देह नहीं है कि जब नयी कार्यकारी परिषद बन
जायेगी, तब वायसराय सुदूर-पूर्व के ब्रिटिश साम्राज्यवादी युद्ध में मानव शक्ति,
धन और संसाधन झोंकना शुरु कर देंगे। इससे बहुत-से ऐसे मुद्दे खड़े होंगे, जिनमें
भारत तथा ब्रिटेन के हित आपस में टकरायेंगे। ऐसे में अगर आप कार्यकारी परिषद के
काँग्रेस सदस्यों के खिलाफ प्रदर्शन एवं प्रचार जारी रखेंगे, तो उन्हें ब्रिटेन के
खिलाफ जाकर भारत के हितों के समर्थन में खड़ा होना पड़ेगा। फिर तो वायसराय के साथ
टकराव होना ही है। तब आपको सुदूर-पूर्व में बलि का बकरा बनाकर भारतीय जवानों के
भेजे जाने के खिलाफ प्रदर्शन करना होगा। अगर इससे भी बात नहीं बनती, तो आपको
युद्धक साजो-सामान बनाने वाली इकाईयों में तोड़—फोड़ करनी होगी, यातायात को बाधित
करना होगा और संचार-व्यवस्था को तहस-नहस करना होगा।
"जैसा कि आप जानते हैं, पिछले पाँच वर्षों में ब्रिटेन
उन देशों में भूमिगत गतिविधियों को चलाने तथा उन्हें संगठित करने के लिए जरूरी
दिशा-निर्देश जारी कर रहा है, जो देश उसकी नियंत्रण से बाहर जा रहे हैं, जैसे कि
फ्राँस, बेल्जियम, हॉलैण्ड, डेनमार्क, युगोस्लाविया और ग्रीस। ब्रिटेन की तरह भारत
में भी ऐसे लोग हैं, जिन्होंने अन्य देशों जाकर भूमिगत गतिविधियों में प्रशिक्षण
हासिल कर रखा है। अगर आप इन लोगों की मदद ले सकें, या कम-से-कम ब्रिटिश अधिकारियों
द्वारा भूमिगत गतिविधियों के लिए अन्य देशों में जारी किये गये दिशा-निर्देशों का
उपयोग करते हुए भारत में अँग्रेजों के ही खिलाफ इनका उपयोग कर सकें, तो आपको अच्छे
परिणाम प्राप्त होंगे।
"अन्त में- हालाँकि इसका महत्व कम न आँकें, आपको भरतीय
सेनाओं के अन्दर बगावत की चिन्गारी सुलगानी है, ताकि देश के अन्दर ही बगावत हो सके।
आज की भरतीय सेना 1939 की सेना नहीं है। ब्रिटिश रपटों के अनुसार, भरतीय सेना का
संख्याबल 25,00,000 है। इस सेना में ऐसे बहुत-से लोग हैं, राजनीति समझते हैं और
विचारों से राष्ट्रवादी हैं। बगावत के कारण सेना भंग करने की नौबत आयेगी और यही
सशस्त्र क्रान्ति का मौका होगा। इस विश्वयुद्ध को धन्यवाद कि इसकी बदौलत आज पच्चीस
लाख भारतीय शस्त्र चलाना जानते हैं। जब सेना को भंग किया जा रहा हो, तब आप
शस्त्रागारों पर धावा बोल सकते हैं और हथियार उठाकर अँग्रेज शासकों से युद्ध कर
सकते हैं। 1930 में चटगाँव शस्त्रागार पर बोला गया हमला एक शानदार उदाहरण है कि
कैसे दुश्मनों के हथियार को हासिल करके उन्हीं के खिलाफ इसका इस्तेमाल किया जा
सकता है।
"मुझे यकीन है कि अगर
ब्रिटिश साम्राज्यवाद के साथ समझौता करने से इन्कार रकते हुए हम संघर्ष जारी रखते
हैं, और अन्तर्राष्ट्रीय मंच पर अपने पत्ते सही खेलते हैं, तो इस युद्ध की समाप्ति
तक हम अपनी आजादी को हासिल कर लेंगे।
लेकिन इसका मतलब यह नहीं है कि अगर किसी कारण से हम सफल न हो पायें, तो हम निराश
हो जायें, या अपना मन छोटा कर लें। बुरे-से-बुरा यही हो सकता है कि इस युद्ध की
समाप्ति तक हमें आजादी न मिले; तो क्या हुआ, हम युद्ध के बाद फिर से क्रान्ति की
योजना बनायेंगे। और अगर वह प्रयास भी विफल हो गया, तो आजादी के लिए लड़ने का मौका
देने के लिए एक तीसरा विश्वयुद्ध होगा! मुझे कोई सन्देह नहीं है कि इस दूसरे
विश्वयुद्ध के दौरान अगर दुनिया के सभी गुलाम देश आजाद नहीं हुए, तो दस वर्षों के
अन्दर- शायद इससे पहले ही- एक तीसरा विश्वयुद्ध शुरु हो जायेगा।
"जैसा कि मैंने पहले ही कहा है- भारत की आजादी तय है,
सिर्फ समय तय नहीं है। बुरी-से-बुरी स्थिति में- बल्कि इससे भी ज्यादा बुरी स्थिति
में- बस चन्द वर्ष लग सकते हैं भारत को आजाद होने में। फिर हम एक समझौता करने के
लिए वायसराय के घर की ओर दौड़ लगाने के लिए उत्सुक क्यों हों? क्रान्तिकारियों के
रुप में आपका फर्ज बनता है कि आप आजादी के झण्डे को फहराये रखें और तब तक फहराये
रखें, जब तक कि देश की आम जनता खुली बगावत के लिए तैयार न हो जाये और नयी दिल्ली
में वायसराय के घर के ऊपर तिरंगा न लहरा दिया जाय!
"जय हिन्द!"
"मृतक ने तुमसे कुछ नहीं लिया | वह अपने लिए कुछ नहीं चाहता था | उसने अपने को देश को समर्पित कर दिया और स्वयं विलुप्तता मे चला गया |"
जवाब देंहटाएं- महाकाल
(श्री Anuj Dhar जी की पुस्तक,"मृत्यु से वापसी - नेता जी का रहस्य" से लिए गए कुछ अंश)
"महाकाल" को ११६ वीं जयंती पर हम सब का सादर नमन ||
आज़ाद हिन्द ज़िंदाबाद ... नेता जी ज़िंदाबाद ||
जय हिन्द !!!