रविवार, 17 जून 2012

28 जून 1945 / "संघर्ष जारी रखो"- स्वतंत्र भारत की अन्तरिम सरकार रेडियो, सिंगापुर से प्रसारण




-:28 जून 1945:- 

"संघर्ष जारी रखो"- 

स्वतंत्र भारत की अन्तरिम सरकार रेडियो, सिंगापुर से प्रसारण


      "क्रान्तिकारी साथियों! पिछली रात मैं यह साबित करना चाहता था कि लॉर्ड वावेल के प्रस्ताव को स्वीकार करके हम कुछ भी हासिल नहीं करने जा रहे हैं। हाँ, हम अपने देश के भविष्य को बर्बाद जरूर करेंगे! अगर हम प्रस्ताव स्वीकार कर लेते हैं, तो बेशक, काँग्रेस द्वारा नामित कुछ व्यक्तियों को ऊँचे पद प्राप्त हो जायेंगे, लेकिन बस इतना ही। एक राष्ट्र के रुप में हम नष्ट हो जायेंगे और काँग्रेस द्वारा इतने वर्षों के किये-कराये पर पानी फिर जायेगा।
      "किसी भी परतंत्र देश में जब क्रान्तिकारी आन्दोलन तेज होते हैं, तो विदेश से नियंत्रित सरकार आन्दोलनकारियों के साथ कुछ समझौतों पर पहुँचने की कोशिश करती है, ताकि कुछ सतही छूट देकर वह अपनी पकड़ को मजबूत बनाये रख सके। जब आयरलैण्ड में सिन-फेन पार्टी ने आन्दोलन की शुरुआत थी, तब ब्रिटिश सरकार ने भावी आयरिश संविधान का खाका तैयार करने के लिए सभी पार्टियों को लेकर एक राष्ट्रीय सम्मेलन का प्रस्ताव रखा था। मगर सिन-फेन पार्टी ने इस तथाकथित राष्ट्रीय सम्मेलन का यह कहकर बहिष्कार किया था कि जिसने स्वतंत्रता के लिए संघर्ष किया है, सिर्फ उसी को देश के लिए संविधान तैयार करने का अधिकार प्राप्त है। उन्होंने अपने राष्ट्रीय आन्दोलन को जारी रखा और कुछ समय बाद ब्रिटिश सरकार को सिन-फेन पार्टी की माँग को मानते हुए अन्य सभी पार्टियों को बाहर निकालने के लिए बाध्य होना पड़ा।
      "आपको याद होगा कि 1931 में जब गोलमेज सम्मेलन में भाग लेने का प्रश्न उठा था, तब मैंने कहा था कि अकेले काँग्रेस को ही इस सम्मेलन में भाग लेने का हक है- किसी और को नहीं। जिन्होंने आजादी के लिए संघर्ष नहीं किया है, वे ऐसे सम्मेलनों में भाग लेने के लिए अपने अधिकार का दावा पेश नहीं कर सकते! उस वक्त काँग्रेस के नेताओं ने मेरी बातों पर जरा भी ध्यान नहीं दिया था। दूसरे गोलमेज सम्मेलन में महात्मा गाँधीजी ने भाग लिया- अन्यान्य प्रतिक्रियावादी प्रतिनिधियों के साथ। मगर जल्दी ही उन्होंने महसूस किया कि अँग्रेज सरकार इस सम्मेलन में भारतीयों को एक-दूसरे के खिलाफ लड़ाना चाहती है। वहाँ महात्माजी को जो शिक्षा मिली, उसे वे कभी नहीं भूले। इसी से पता चलता है कि उन्होंने शिमला सम्मेलन में क्यों नहीं भाग लिया। शिमला सम्मेलन में भाग न लेकर उन्होंने अपनी प्रतिष्ठा को बढ़ाया ही है, और मुझे कोई सन्देह नहीं है कि उनका यह कदम अन्त में अच्छा परिणाम ही देगा। हालाँकि उन्होंने देसाई-लियाकत अली समझौते का समर्थन किया है, जिसके तहत लॉर्ड वावेल को इंग्लैण्ड जाकर एक नये प्रस्ताव के साथ वापस लौटना पड़ा; फिर भी, सम्मेलन में भाग न लेकर महात्माजी ने ठीक किया है। वे ही हैं, जो काँग्रेस और भारत को भयानक शर्मिन्दगी से बचा सकते हैं।
      "मेरा मानना है कि काँग्रेस ने शिमला सम्मेलन में भाग लेकर वही भयंकर गलती की है, जो महात्माजी ने 1931 में गोलमेज सम्मेलन में भाग लेकर की थी। यह काँग्रेस वही काँग्रेस है, जो पिछली आधी शताब्दी से स्वतंत्रता के लिए संघर्ष करती आ रही है। अतः सिर्फ काँग्रेस को ही यह विशेषाधिकार प्राप्त है कि किसी भी शक्ति के साथ वार्ता करके किसी नतीजे पर पहुँचे। इस हिसाब से, भिन्न-भिन्न विचारधारा वाले राजनीतिक तत्वों के साथ किसी सम्मेलन में भाग लेकर काँग्रेस अपनी प्रतिष्ठा ही कम कर रही है। काँग्रेस ही एकमात्र भारत की भारत की राष्ट्रीय तथा प्रतिनिधि संस्था है, और सिर्फ इसे ही भारत की जनता का प्रतिनिधित्व करने तथा उसकी ओर से बोलने का हक प्राप्त है। इससे मगर वायसराय का मतलब नहीं निकलता। सो उन्होंने परिषद में हिन्दू और मुसलमान की समानता की बात कही। उन्होंने काँग्रेस और मुस्लीम लीग, दोनों को आमंत्रित किया और इस प्रकार, काँग्रेस की हैसियत उन्होंने एक सांप्रदायिक दल की बना दी! मगर महात्माजी ने अपना दाँव सही खेला। उन्होंने वायसराय को बाध्य किया इस सम्मेलन में मौलाना आजाद को आमंत्रित करने के लिए और खुद को इससे दूर रखा। इस प्रकार उन्होंने वावेल और जिन्ना, दोनों को पराजित करते हुए उनकी धूर्त एवं शैतानी चालों को नाकाम कर दिया। काँग्रेस के प्रतिनिधि के तौर पर एक मुसलमान, मौलाना आजाद, को सामने पाकर जिन्ना खुद को सहज महसूस नहीं कर पायेंगे! तभी तो वे मौलाना आजाद के बजाय पण्डित पन्त के साथ वार्तायें चला रहे हैं।
      "प्रस्तावित कार्यकारी परिषद में मुस्लीम लीग और काँग्रेस के प्रतिनिधि होंगे; इसके साथ ही, सिक्ख, ऐंग्लो-इण्डियन एवं अन्य अल्पसंख्यक समुदायों का प्रतिनिधित्व रहेगा। जाहिर है कि काँग्रेस के प्रतिनिधिगण वतन के प्रति वफादार बने रहेंगे, जबकि लीगियों को वायसराय अपनी तरफ कर सकते हैं। ऐसा होने पर उन्हीं की चलेगी। अगर किसी मुद्दे पर काँग्रेस और लीग के प्रतिनिधि एकमत हो भी गये, तो इसे निष्प्रभावी करने के लिए वायसराय का 'वीटो' सदा मौजूद रहेगा! अतः लगभग हर मामले में वायसराय की बात ही अन्तिम होगी। ...और जब हमारा ध्यान इस तरफ जाता है कि वे जापान से लड़ने के लिए 5,00,000 सैनिकों को भेजना चाहते हैं, तब हमें यह अहसास होता है कि शिमला वार्ता में भाग लेना कितनी भयंकर भूल है!
      "ब्रिटिश अधिकारियों ने आश्वासन दिया है कि वायसराय के 'वीटो' पा प्रयोग कभी-कभार ही होगा, जो काँग्रेस के साथ जो व्यवहार किया गया है, उससे ऐसी कोई उम्मीद नहीं रह जाती।  उदाहरण तो सामने ही है- सम्मेलन में पहली कुर्सी काँग्रेस के अध्यक्ष को नहीं, बल्कि किसी और संगठन के अध्यक्ष को दी गयी है। सारी दुनिया में ऐसा होता है कि पहला स्थान सबसे बड़े दल के प्रतिनिधि को दिया जाता है। दिल्ली रेडियो के अनुसार, काँग्रेस अध्यक्ष को वायसराय के दाहिनी वाली नहीं, बल्कि बाँयी तरफ वाली कुर्सी दी गयी है। यह कोई व्यक्तिगत प्रतिष्ठा का मामला नहीं है। यह उस संस्थान का अपमान है, जिसे हम सब प्यार करते हैं। मैं जानना चाहता हूँ कि इस व्यवस्था के खिलाफ कोई आपत्ति दर्ज की गयी है या नहीं! अगर नहीं, तो फिर काँग्रेस ने देश के सामने यह साबित कर दिया है कि वायसराय का प्रस्ताव स्वीकार करने के लिए वह लालायित है- चाहे इसके लिए उसे अपमान का कड़वा घूँट ही क्यों न पीना पड़े!
      "हमारे कुछ देशवासियों ने उनकी निष्कपता एवं सदिच्छा के लिए लॉर्ड वावेल की प्रशंसा की है। खबरों के अनुसार, सम्मेलन के उद्घाटन भाषण में उन्होंने कहा है- 'मैंने आप सबको आमंत्रित किया है, ताकि भारत को स्व-शासन के लक्ष्य तक पहुँचाने के लिए आप मेरी मदद कर सकें। एक निर्णय पर पहुँचे बिना हमें इस सम्मेलन को विसर्जित नहीं करना है। भारत में शान्ति तथा इसके कल्याण के लिए मैं हिज-मैजेस्टि की सरकार के प्रति उत्तरदायी हूँ। मैं आपसे अपील करता हूँ कि अपना कार्य पूरा करने में आप मेरी मदद करें।' यह वाकई आश्चर्यजनक है कि वावेल अभी भी खुद को भारत की नियति का निर्णायक समझते हैं। हमें चाहिए कि हम उन्हें साफ-साफ बता दें कि भारतीय अपनी नियति के निर्णायक स्वयं हैं! वे दिन बहुत समय पहले ही लद गये हैं, जब भारतीय इस तरह की शुभकामना सन्देश पर गर्व महसूस करते थे; अब तो वे अँग्रेजों द्वारा पीठ थपथपाये जाने पर शर्मिन्दगी महसूस करते हैं!
      "साथियों, काँग्रेस ने शिमला सम्मेलन में भाग लेकर जो गलती की है, उसे सुधारने के लिए एक सलाह है। देशवासी काँग्रेस को यह समझने के लिए विवश कर दें कि ऐसे गम्भीर मुद्दे पर फैसला लेने के लिए कार्यकारिणी अधिकृत नहीं है। यह अधिकार काँग्रेस की आम-सभा को प्राप्त है। वर्तमान कार्यकारिणी में वामपन्थी विचारधारा का कोई है ही नहीं, जबकि उनसे मशविरा किया जाना चाहिए।
      "साथियों, मुझे इतना ही कहना था। याद रहे- हम क्रान्तिकारी हैं, हम आशावादी हैं। तमाम प्रलोभनों के बावजूद हमें अपना संघर्ष जारी रखना है, और हमें कामयाब होना ही है!
      "जय हिन्द!" 

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