शनिवार, 16 जून 2012

29 जून 1945 / "एक बिजली की चमक"- सिंगापुर से प्रसारण




29 जून 1945

"एक बिजली की चमक"- सिंगापुर से प्रसारण


"भारत में मेरी बहनों और भाइयों! आज शिमला से आये नवीनतम समाचार ने काले बादलों के बीच बिजली की एक चमक दिखायी है। आज मुस्लीम लीग के प्रतिनिधियों ने आग्रह किया है कि वायसराय के कार्यकारी परिषद में मुसलमानों के लिए निर्धारित स्थान सिर्फ और सिर्फ मुस्लीम लीग को मिलने चाहिए। स्वाभाविक रुप से काँग्रेस को इस स्थिति को स्वीकार करने से इन्कार कर देना चाहिए और इस बात के लिए दवाब डालना चाहिए कि मुसलमानों के निर्धारित सीटों में से कुछ सीट राष्ट्रवादी मुसलमानों को मिले, जो मुस्लीम लीग से बाहर हैं। मैं केवल आशा और प्रार्थना कर सकता हूँ कि ब्रिटिश प्रस्ताव को स्वीकार करने की चरम उत्कण्ठा के बीच काँग्रेस अपनी स्थिति से एक ईंच भी न डिगे। इस मामले पर मुस्लीम लीग की अनुचित माँग के सामने अगर काँग्रेस झुक जाती है, तो यह उसके लिए राजनीतिक आत्महत्या के बराबर होगी!
"मुझे इस बात में कोई सन्देह नहीं है कि अगर काँग्रेस इस मौलिक एवं अति महत्वपूर्ण मुद्दे पर मुस्लीम लीग के सामने आत्मसमर्पण कर देती है, तो काँग्रेस के अन्दर एक बगावत हो जायेगी। ऐसे निर्णय के खिलाफ न केवल काँग्रेस के अन्दर का समूचा वामपंथी खेमा बगावत कर देगा, बल्कि दूसरे काँग्रेसजन भी, जो वामपन्थी रुझान वाले नहीं हैं, बड़ी संख्या में इस बगावत में शामिल हो जायेंगे।   
"मुझे यह जानकर अति-प्रसन्नता हुई कि पाँच राष्ट्रवादी मुस्लिम संगठनों के प्रतिनिधियों ने हाल ही में नई दिल्ली में एक सम्मेलन आयोजित किया है और इस घोषणा को दोहराया है कि केवल मुस्लिम लीग ही भारत के मुसलमानों का अकेला प्रतिनिधि संगठन नहीं है। इस सम्मेलन का बुलाया जाना इस बात संकेत है कि भारत में पार्टियों के मतभेद अब दृढ़तापूर्वक खड़े हो रहे हैं। मैं सिर्फ आशा कर सकता हूँ कि जो भी संगठन और व्यक्ति लॉर्ड वावेल के प्रस्ताव के खिलाफ बागी तेवर या सन्देह रखते हैं, वे सभी एक संयुक्त विपक्ष का गठन कर लें। मेरे हिसाब से, सबसे पहले तो यह होना चाहिए कि भारत के सभी राष्ट्रवादी मुस्लीम संगठन अपनी आवाज बुलन्द करें। सम्भवतः आज़ाद मुस्लीम लीग या ज़मीयत-उल-उलेमा सारे देश के राष्ट्रवादी मुस्लीम संगठनों का एक प्रतिनिधि सम्मेलन बुलाने की दिशा में पहल कर सकती है। मेरे सामने जो जो रिपोर्ट है, उससे पता चलता है कि हाल ही में दिल्ली में सम्पन्न सम्मेलन में सीमान्त प्रान्त की खुदाई-खिदमतगार और बंगाल की प्रजा पार्टी के प्रतिनिधियों ने भाग नहीं लिया था। यह भी साफ नहीं है कि मज़लिस-इ-अहरार ने सम्मेलन में भाग लिया या नहीं। जिस सम्मेलन का सुझाव दिया जा रहा है, उसमें पंजाब की संघीय पार्टी के प्रतिनिधियों को भी बुलाया जा सकता है क्योंकि संघीय पार्टी के मुसलमान सदस्य इस बात को स्वीकार नहीं करेंगे कि मुस्लीम लीग भारतीय मुसलमानों का अकेला प्रतिनिधि है।
"मेरी तरह जिन्हें भी यह दृढ़ विश्वास है कि भारत के हित में और शीघ्र आजादी पाने के लिए लॉर्ड वावेल के प्रस्ताव को येन-केन-प्रकारेण खारिज किया जाना चाहिए, उन सबको तब तक आन्दोलन जारी रखना चाहिए, जब तक कि हम खतरे से बाहर न आ जायें। और अगर पहले दौर में हम हार भी जाते हैं, तो भी, हमें अपना विरोध जारी रखना चाहिए, ताकि ऐसी स्थिति पैदा हो जाय कि काँग्रेस को वायसराय की कार्यकारी परिषद से इस्तीफा देने के लिए मजबूर होना पड़े। ध्यान रहे- एक क्रान्तिकारी संघर्ष में हमें निराश, हतोत्साहित और दुःखी नहीं होना है, खासकर तब, जब अभियान की सफलता पर इसका असर पड़ता हो।
"महात्मा गाँधीजी द्वारा शिमला सम्मेलन में भाग न लेने का बुद्धिमतापूर्ण निर्णय थोड़ी-सी आशा बँधाता है कि त्रासदी को अब भी टाला जा सकता है। मैं समझ सकता हूँ कि मुस्लीम लीग के प्रतिनिधियों ने सम्मेलन में मौलाना आजाद को आमंत्रित किये जाने का विरोध क्यों किया था। महात्मा गाँधीजी ने जो किया, वह न केवल सौ फीसदी उचित है, बल्कि बुद्धिमानी भरा कदम है। एक मुसलमान मात्र होने के नाते काँग्रेस अध्यक्ष को शिमला सम्मेलन में काँग्रेसी शिष्टमण्डल का नेतृत्व करने से अगर रोका जाता, तो मौलाना अबुल कलाम आजाद के लिए यह व्यक्तिगत अपमान की बात तो होती ही, काँग्रेस के उन बहुत सारे मुसलमानों का भी इससे अपमान होता, जिन्होंने भारत की आजादी के लिए भारी बलिदान किया है।
"मुझे आश्चर्य है कि काँग्रेस के साथ समझौता करने के लिए श्री जिन्ना ने काँग्रेस अध्यक्ष के साथ कोई सीधी बातचीत नहीं की, बल्कि बातचीत का दिखावा भर करने के लिए पण्डित गोविन्द वल्लभ पन्त को अपने तथा काँग्रेस अध्यक्ष के बीच मध्यस्थ नियुक्त कर दिया। काँग्रेस शिष्टमण्डल का प्रतिनिधित्व करते हुए मौलाना अबुल कलाम आजाद ने सम्मेलन में भारत की भावना को आवाज देकर भारत की बहुत बड़ी सेवा की है। इसमें कोई शक नहीं है कि शिमला सम्मेलन में भाग न लेकर महात्मा गाँधीजी ने व्यक्तिगत रुप से अपनी स्थिति एवं प्रतिष्ठा को और मजबूत ही किया है। गाँधीजी द्वारा अभी खुद को सारे मामले से बाहर रखना अच्छा ही है, ताकि सही वक्त पर सामने आकर वे प्रस्ताव को खारिज करने की सलाह दे सकें- ऐसा करना उनके लिए कोई नयी बात नहीं होगी।
"इस दौरान खतरा बरकरार है और हम अपना समय नष्ट नहीं कर सकते। अतः मैं यह आशा एवं विश्वास व्यक्त करता हूँ कि भारतीय स्वतंत्रता के सभी प्रेमी एवं समर्थक ब्रिटिश प्रस्ताव को खारिज करने के लिए अपने प्रयास जारी रखेंगे, जो कि भारत की आजादी के रास्ते में एक बड़ा खतरा है। एक बार रास्ते की इस बाधा को हटा दिया जाय, उसके बाद तो भारतीय जनता फिर से इस मानसिक स्थिति में आ जायेगी कि वह एक कारगर रुपरेखा बनाकर राष्ट्रीय स्तर पर संघर्ष जारी रख सके- जब तक कि सम्पूर्ण आजादी हासिल नहीं हो जाती!  
"जय हिन्द!" 

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